Book Title: Jain Dharm ke Naitik Siddhant Author(s): Ishwarchand Sharma Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 8
________________ २६ मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ द्वितीय अध्याय : जैन श्राचारशास्त्र में संन्यासवाद जैन आचारशास्त्र की विशेषता यह है कि वह अत्यन्त कठोर है, क्योंकि उसका परम उद्देश्य मोक्ष है, जिसका अर्थ अनन्त सुख, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन तथा अनन्त शक्ति है. इस असाधारण अवस्था की प्राप्ति स्वार्थ का पूर्णतया त्याग किये विना कदापि नहीं हो सकती. जैनदृष्टि से केवल संन्यासी ही इन कठोर नैतिक नियमों का अनुसरण कर सकता है, क्योंकि वह सभी सांसारिक बन्धनों को त्याग देता है. वास्तव में भारतीय दर्शन में प्रायः सभी सिद्धान्तों द्वारा संन्यास की भावना को अनन्त अवस्था प्राप्त करने का साधन माना गया है. आत्मानुभूति के लिये सभी सांसारिक वस्तुओं का त्याग करना आवश्यक माना गया है. इस प्रकार के उच्च संन्यासवाद की ओर प्रवृत्ति आत्मा की अनन्त बनने की प्रबल इच्छा से ही प्रेरित होती है. यह संन्यासवाद आत्माको विशाल बनाता है, व्यक्ति को उसकी स्वार्थ की भावनाओं से मुक्त करता है और एक ऐसे जीवन का निर्माण करता है, जिसमें मानवमात्र के लिये प्रेम तथा सहानुभूति की भावना की प्रधानता होती है. Jain Educ.. जिसमें लाभ को एक संन्यासवाद का अर्थ सेवा तथा आत्मत्याग है. सेवा तथा आत्मत्याग का अनुसरण कायर तथा निर्बल सकता, अपितु इस मार्ग पर वीर और साहसी आत्मा ही चल सकती है. एक सामान्य व्यक्ति को जीवन अपूर्ण प्रतीत होता हो किन्तु यह तथाकथित अपूर्ण जीवन वास्तव में पूर्ण जीवन है. इसी चीनी दार्शनिकों ने भी अपनाया है. लाओजू के अनुसार "सरल जीवन ऐसा निष्कपट जीवन है, ओर फेंक दिया जाता है, चातुर्य का त्याग किया जाता है, स्वार्थ तथा इच्छाओं का बलिदान कर दिया जाता है. यह पूर्णता का ऐसा नियम है जो अपूर्ण प्रतीत होता है, ऐसी सम्पन्नता है जो रिक्त दिखाई देती है, ऐसा पूर्ण सीधा मार्ग है जो टेड़ा दिखता है ऐसी प्रदाता है जो असुन्दर दिखाई देती है, और ऐसी वाक्पटुता है जो मौन दिखाई देती है. यह ऐसा जीवन है जो तलवार की धार की भांति तीखा है, किन्तु जो चुभता नहीं है. यह एक रेखा की भांति सीधा है किन्तु प्रसारित नहीं है. प्रकाश की भांति चमकदार है परन्तु आंखों को चुंधियाता नहीं है. यह वस्तुओं के उत्पादन तथा उनके पोषण का वह जीवन है, जिसमें उन वस्तुओं को अपना नहीं बनाया जाता है. यह कर्म में प्रवृत्त होने की विधि है जिसमें स्वाभिमान नहीं रहता है. यह एक ऐसा साम्राज्य है, जिसमें प्रभुत्व नहीं जमाया जाता ." व्यक्ति नहीं कर ही संन्यास का को लाओ जैसे भले संन्यास - जीवन का यह विचित्र लक्षण, जो कि एक विरोधाभास को प्रकट करता है, ऐसी जटिलता उत्पन्न करता है, जिसको सुलझाना सामान्य व्यक्ति का काम नहीं है. इस जीवन के मर्म को समझने के लिए ऐसे जीवन का गम्भीर अध्ययन करना चाहिए. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि संन्यासी के जीवन का उद्देश्य मानवमात्र का उत्थान तथा उसका आदर्श एक सम्पूर्ण जीवन की प्राप्ति होने के कारण निराशावाद को वह प्रश्रय नहीं दे सकता. इसमें सन्देह नहीं कि संन्यासी जीवन के तथाकथित सुखों को घृणा की दृष्टि से देखता है किन्तु उसका उद्देश्य परम सुख होता है. वह अपने वातावरण के प्रति असन्तुष्ट या कम से कम तटस्थ दिखाई देता है, तथापि उसका मुख्य उद्देश्य परम सत्ता की अनुभूति होता है. भारतीय दर्शन को समझने के लिये हमें बुद्ध द्वारा प्रस्तुत चार आर्यसत्यों को नहीं भूलना चाहिए जो निम्नलिखित हैं: (१) विश्व में दुख है (२) उस दुख का कारण है (३) उस दुख का अन्त होता है तथा ( ४ ) इस उद्देश्य की प्राप्ति का उपाय है. इससे यह स्पष्ट होता है कि भारतीय दर्शन संन्यासवाद को निराशावाद के रूप में ग्रहण नहीं करता, अपितु उसे मोक्ष का साधन मात्र ही मानता है. जैनवाद को श्रमणवाद इसलिए कहा जाता है कि इसके अनुसार केवल संन्यासी अथवा साधु ही अहिंसा का निरपेक्ष अनुसरण करके मोक्ष प्राप्त कर सकता है. यद्यपि इसमें गृहस्थियों के लिए भी नैतिक नियमों का प्रतिपादन किया गया है, तथापि जैन आचारशास्त्र प्रधानतया संन्यासवादी आचार शास्त्र है. गृहस्थ श्रावकों के लिये जिस प्रकार के आचार को प्रतिपादित किया जाता है, उसे अणुव्रत कहते हैं. किन्तु जो प्राचार साधुओं के लिये प्रतिपादित किया गया है, उसे महाव्रत कहा जाता है. महाव्रतों तथा अगुव्रतों की व्याख्या करने से पूर्व यह बताना आवश्यक है कि जैन आचारशास्त्र 6 www.ainelibrary.orgPage Navigation
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