Book Title: Jain Dharm ke Mul Tattva Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 2
________________ जैन धर्म के मूलतत्त्व ३३५ दुःख और दुःख-विमुक्ति करती है। जिससे हमारा चैतसिक समत्व भंग होता है। वह सामाजिक महाश्रमण महावीर के चिन्तन का मल स्रोत जीवन की दुःखमयता जीवन में संग्रह एवं शोषण की वृत्ति को जन्म देकर सामाजिक विषमता का बोध ही है। उत्तराध्ययनसूत्र में वे कहते हैं का कारण बनती है। इसीलिए महावीर ने यह निर्देश दिया कि पदार्थों जम्म दुक्खं जरा दुक्खं रोगा य मरणाणि य। की ओर भागने की अपेक्षा आत्मोन्मुख बनो, क्योंकि जो पदार्थ या अहो दुक्खो हु संसारो जत्थ कीसन्ति जन्तवो।। परापेक्षी होता है वह परतन्त्र होता है, किन्तु जो आत्मापेक्षी होता है जन्म दुःखमय है, वृद्धावस्था भी दुःखमय है,रोग और मृत्यु भी वह स्वतन्त्र होता है। यदि तुम वस्तुत: तनावमुक्त होना चाहते हो तथा दुःखमय है, अधिक क्या यह सम्पूर्ण सांसारिक अस्तित्व ही दुःख वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन में शान्ति चाहते हो तो, आत्मकेन्द्रित रूप है। संसार की दुःखमयता के इसी बोध से दुःख के कारण की बनो, क्योंकि जो पराश्रित या पर-केन्द्रित होता है, वह दुःखी होता खोज एवं दुःख-विमुक्ति (मोक्ष या निर्वाण) के चिन्तन का विकास है और जो स्वाश्रित या स्वकेन्द्रित होता है, वह सुखी होता है। आतुरहुआ है। जैन चिन्तकों ने यह माना है कि सांसारिकता में सुख नहीं प्रत्याख्यान नामक जैन ग्रन्थ में कहा गया है कि समस्त सांसारिक है। जिसे हम सुख मान लेते हैं, वह ठीक उसी प्रकार का है जिस उपलब्धियाँ संयोगजन्य हैं। इन्हें अपना मानने या इन पर ममत्व रखने प्रकार खुजली की बीमारी से पीड़ित व्यक्ति खाज को खुजलाने में से प्राणी दुःख परम्परा को प्राप्त होता है। अत: इन सायोगिक उपलब्धियों सुख मान लेता है, वस्तुत: वह सुख भी दुःख रूप ही है। संसार के प्रति ममत्ववृत्ति का विसर्जन कर देना चाहिए। यही दुःख-विमुक्ति में धनी-निर्धन, शासित-शासक सभी तो दु:खी हैं। कहा है- का एक मात्र उपाय है। आचारांगसूत्र में कहा गया है कि जहाँ-जहाँ धन बिना निर्धन दुःखी, तृष्णावश धनवान। ममत्व है, वहाँ-वहाँ दुःख है। इच्छाओं की पूर्ति से दु:ख-विमुक्ति का कबहु न सुख या संसार में, सब जग देख्यो छान।। प्रयास ठीक वैसा ही है जैसे छलनी को जल से भरने का प्रयास। संसार के इन दुःखों को हम दो भागों में विभाजित कर सकते । हम बाह्य जगत् में रस लेने के लिए जैसे ही उसमें अपना आरोपण हैं- एक तो भौतिक दुःख, जो प्राकृतिक विपदाओं और बाह्य तथ्यों करते हैं, वैसे ही एक प्रकार का द्वैत प्रकट हो जाता है। जिसमें हम के कारण होते हैं और दूसरे मानसिक दुःख जो मनुष्य की आकांक्षाओं अपनेपन का आरोपण करते हैं, आसक्ति रखते हैं, वह हमारे लिए व तृष्णाओं से जन्म लेते हैं। महावीर की दृष्टि में इन समस्त भौतिक 'स्व' बन जाता है और उससे भिन्न या विरोधी 'पर' बन जाता है। एवं मानसिक दु:खों का मूल व्यक्ति की भोगाशक्ति ही है। मनुष्य अपनी आत्मा की समत्व के केन्द्र से यह च्युति ही उसे इन 'स्व' और 'पर' कामनाओं की पूर्ति के द्वारा इन दुःखों के निवारण का प्रयत्न तो करता के दो विभागों में बाँट देती है। इन्हें हम क्रमश: राग और द्वेष कहते है, किन्तु वह उस कारण का उच्छेद नहीं करता जिससे दुःख प्रस्फुटित हैं। राग आकर्षण का सिद्धान्त है और द्वेष विकर्षण का। अपना-पराया, होता है, क्योंकि वह बाहर न होकर हमारी चित्तवृत्ति में होता है। संयम राग-द्वेष अथवा आकर्षण-विकर्षण के कारण हमारी चेतना में सदैव (ब्रह्मचर्य) और सन्तोष (अपरिग्रह) के अतिरिक्त मनुष्य की तृष्णा को ही तनाव, संघर्ष अथवा द्वन्द्व बना रहता है, यद्यपि चेतना या आत्मा समाप्त करने का कोई उपाय नहीं है। महावीर ने कहा था कि बाह्य अपनी स्वाभाविक शक्ति के द्वारा सदैव साम्यावस्था या संतुलन बनाने पदार्थों से इच्छाओं की पूर्ति का प्रयास वैसा ही है जैसे घृत डालकर का प्रयास करती रहती है। लेकिन राग एवं द्वेष किसी भी स्थायी अग्नि को शान्त करना या शाखाओं को काटकर जड़ों को पानी देने सन्तुलन की अवस्था को सम्भव नहीं होने देते। यही कारण है कि के समान है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि जैन-दर्शन में राग-द्वेष से ऊपर उठना सम्यक्-जीवन की अनिवार्य शर्त सुवण्ण-रूप्पस्स उ पव्वया भवे सिया हु केलाससमा असंखया। मानी गई है। ममत्व व राग-द्वेष की उपस्थिति ही मानवीय पीड़ा का नरस्स लुद्धस्स न तेहिं किंचि इच्छा उ आगाससमा अणन्तिया।। मूल कारण है। यदि मनुष्य को मानसिक तनावों से मुक्ति पाना है चाहे स्वर्ण व रजत के कैलाश के समान असंख्य पर्वत क्यों तो, इसके लिए निर्ममत्व या अनासक्ति की साधना ही एक मात्र न खड़े कर दिये जायें, किन्तु वे मनुष्य की तृष्णा को पूर्ण करने में विकल्प है। समर्थ नहीं हैं, क्योंकि इच्छा तो आकाश के समान अनन्त है। समस्त दुःखों का मूल कारण भोगाकांक्षा, तृष्णा या ममत्वबुद्धि ही है। किन्तु आत्मा का बन्धन और मुक्ति इस भोगाकांक्षा की समाप्ति का उपाय इच्छाओं की पूर्ति नहीं है, अपितु जैन धर्म के अनुसार यह संसार दुःखमय है, अत: इन सांसारिक संयम एवं निराकांक्षता ही है। यदि हम व्यक्ति को मानसिक विक्षोभों दुःखों से मुक्त होना ही व्यक्ति का मुख्य प्रयोजन होना चाहिए। मनुष्य एवं तनावों से तथा मानव जाति को हिंसा एवं शोषण से मुक्त करना में उपस्थित राग-द्वेष की वृत्तियाँ ही उसका वास्तविक बन्धन है और चाहते हैं, तो हमें अपने को संयम एवं सन्तोष की दिशा में मोड़ना यही दुःख है। जैन दर्शन के अनुसार मनुष्य जब राग-द्वेष अथवा क्रोध, होगा। भोगवादी सुखों की लालसा में दौड़ता है और उसकी उपलब्धि मान आदि कषायों के वशीभूत होकर कोई भी शारीरिक, वाचिक या हेतु चोरी, शोषण एवं संग्रह जैसी सामाजिक बुराइयों को जन्म देता मानसिक प्रवृत्ति करता है तो उसके परिणामस्वरूप कर्म-परमाणुओं का है। महावीर के अनुसार भोगवादी जीवनदृष्टि इच्छाओं और आकांक्षाओं आकर्षण होता है, जिसे वे आस्रव कहते हैं। जब चित्तवृत्ति में क्रोधादि को जन्म देकर हमारे वैयक्तिक जीवन में तनावों एवं विक्षोभों को उत्पन्न कषाय विद्यमान हो तथा शरीर एवं इन्द्रियों की प्रवृत्ति असंयमित हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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