Book Title: Jain Dharm ke Mul Tattva Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 6
________________ जैन धर्म के मूलतत्त्व • प्रतिमाओं का पालन आता है श्रमणाचार के अन्तर्गत पंचमहाव्रत, रात्रि भोजन- निषेध, पंचसमिति, तीन गुप्ति, दस यतिधर्म, बारह अनुप्रेक्षाएँ, बाईस परीषह, अट्ठाईस मूलगुण, बावन अनाचार आदि का विवेचन उपलब्ध है। किन्तु इस सबके मूल में अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह की साधना ही मुख्य है। जैन धर्म के केन्द्रीय तत्त्व अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह जैन धर्म में सम्यक् चारित्र की दृष्टि से अहिंसा और अनासक्ति ये दो केन्द्रीय सिद्धान्त है। वैचारिक क्षेत्र में अहिंसा और अनासक्ति मिलकर अनाग्रह या अनेकान्तवाद को जन्म देते हैं। आग्रह वैचारिक आसक्ति है और एकान्त वैचारिक हिंसा अनासक्ति का सिद्धान्त ही अहिंसा से समन्वित हो सामाजिक जीवन में अपरिग्रह का आदेश प्रस्तुत करता है। संग्रह वैयक्तिक जीवन के सन्दर्भ में आसक्ति और सामाजिक जीवन के सन्दर्भ में हिंसा है। इस प्रकार जैन दर्शन सामाजिक नैतिकता के तीन केन्द्रीय सिद्धान्त प्रस्तुत करता है१. अहिंसा, २. अनाग्रह (वैचारिक सहिष्णुता ) और ३. अपरिग्रह (असंग्रह ) । सम्यग्आचरण एक प्रकार से जीवन शुद्धि का प्रयास है, अतः मानसिक कर्मों की शुद्धि के लिए अनासक्ति (अपरिग्रह), वाचिक कर्मों की शुद्धि के लिए अनेकान्त (अनाग्रह) और कायिक कर्मों की शुद्धि के लिए अहिंसा के पालन का निर्देश किया गया है। जैन दर्शन का सार इन्हीं तीन सिद्धान्तों में निहित है। जैन धर्म की परिभाषा करने वाला यह श्लोक सर्वाधिक प्रचलित हो है— स्याद्वादो वर्ततेऽस्मिन् पक्षपातो न विद्यते । नास्त्यन्यं पीडनं किंचित् जैनधर्मः स उच्यते ।। सच्चा जैन वही है जो पक्षपात (समत्व) से रहित है, अनामही और अहिंसक है। अहिंसा 3 अहिंसा जैन आचार दर्शन का प्राण है अहिंसा वह धुरी है। जिस पर समग्र जैन आचार - विधि घुमती है। जैनगामों में अहिंसा को भगवती कहा गया है प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया है कि भयभीतों को जैसे शरण, पक्षियों को जैसे गगन, रूषितों को जैसे जल भूखों को जैसे भोजन, समुद्र के मध्य जैसे जहाज, रोगियों को जैसे औषध और वन में जैसे सार्थवाह का साथ आधारभूत है, वैसे ही अहिंसा प्राणियों के लिए आधारभूत है। अहिंसा सभी प्राणियों का कल्याण करने वाली है। वह शाश्वत धर्म है, जिसका उपदेश तीर्थंकर करते हैं। आचारांगसूत्र में कहा गया है भूत, भविष्य और वर्तमान के सभी अर्हत् यह उपदेश करते हैं कि किसी भी प्राण, पूत, जीव और सत्त्व को किसी प्रकार का परिताप, उद्वेग या दुःख नहीं देना चाहिए, न किसी का हनन करना चाहिए। यही शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म है । समस्त लोक की पीड़ा को जानकर अर्हतों ने इसका प्रतिपादन किया है। सूत्रकृतांगसूत्र के अनुसार ज्ञानी होने के सार यह है कि किसी भी प्राणी की हिंसा न करे। अहिंसा ही समग्र धर्म का सार Jain Education International ३३९ है, इसे सदैव स्मरण रखना चाहिए। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि सभी प्राणियों के हित साधन में अहिंसा के सर्वश्रेष्ठ होने से महावीर ने इसको प्रथम स्थान दिया है अहिंसा के समान दूसरा धर्म नहीं है। आचारांग में अहिंसा के सिद्धान्त को मनोवैज्ञानिक आधार पर स्थापित करने का प्रयास किया गया है। वह कहता है कि सभी प्राणियों में जिजीविषा प्रधान है, पुनः सभी को सुख अनुकूल और दुःख प्रतिकूल है अहिंसा का अधिष्ठान यही मनोवैज्ञानिक सत्य है अस्तित्व और सुख की चाह प्राणीय स्वभाव है। जैन विचारकों ने इसी मनोवैज्ञानिक तथ्य के आधार पर अहिंसा को स्थापित किया है। वस्तुत: अहिंसा जीवन के प्रति सम्मान, समत्वभाव एवं अद्वैतभाव है। समत्वभाव से सहानुभूति तथा अद्वैतभाव से आत्मीयता उत्पन्न होती है और इन्हीं से अहिंसा का विकास होता है। वस्तुतः प्राणियों के जीवित रहने का नैतिक अधिकार ही अहिंसा के कर्तव्य को जन्म देता है। जीवन के अधिकार का सम्मान ही अहिंसा है। उत्तराध्ययनसूत्र में समत्व के आधार पर अहिंसा के सिद्धान्त की स्थापना करते हुए कहा गया है कि भय और वैर से मुक्त साधक, जीवन की इच्छा रखने वाले सभी प्राणियों को सर्वत्र अपनी आत्मा के समान जान कर उनकी कभी भी हिंसा न करे। इस प्रकार जैन धर्म में अहिंसा का आधार आत्मवत् दृष्टि ही है आज विश्व शान्ति का एक मात्र विकल्प अहिंसा की समवेत साधना है। महावीर ने कहा था- 'शस्त्र एक से बढ़ कर एक हो सकते हैं, किन्तु अहिंसा (अशस्त्र) से बढ़कर कुछ नहीं है। अनाग्रह अनाग्रह या अनेकान्त का सिद्धान्त वैचारिक अहिंसा है। अनाग्रह अपने विचारों की तरह दूसरे के विचारों का सम्मान करना सिखाता है। वह उस भ्रान्ति का निराकरण करता है कि सत्य मेरे पास है, दूसरे के पास नहीं हो सकता। वह हमें यह बताता है कि सत्य हमारे पास भी हो सकता है और दूसरे के पास भी । सत्यता का बोध हमें ही हो सकता है, केवल दूसरों को सत्य का बोध नहीं हो सकतायह कहने का हमें अधिकार नहीं है। सत्य का सूर्य न केवल हमारे घर को प्रकाशित करता है, वरन् दूसरों के घरों को भी प्रकाशित करता है। वस्तुतः वह सर्वत्र प्रकाशित है। जो भी उन्मुक्त दृष्टि से उसे देख पाता है, वह उसे पा जाता है। सत्य केवल सत्य है, वह न मेरा है और न दूसरे का है। जिस प्रकार अहिंसा का सिद्धान्त कहता है कि जीवन जहाँ कहीं हो, उसका सम्मान करना चाहिए, उसी प्रकार अनाग्रह का सिद्धान्त कहता है कि सत्य जहाँ भी हो, उसका सम्मान करना चाहिए। वस्तुतः पक्षाग्रह की धारणा से विवाद का जन्म होता है। व्यक्ति जब स्व-मत की प्रशंसा और दूसरों की निन्दा करता है, तो परिणामस्वरूप सामाजिक जीवन में संघर्ष का प्रादुर्भाव हो जाता है। वैचारिक आग्रह न केवल वैयक्तिक विकास को कुण्ठित करता है, वरन् सामाजिक जीवन में विग्रह, विषाद और वैमनस्य के बीज बो देता है । सूत्रकृतांगसूत्र में कहा गया है कि जो अपने-अपने मत For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.Page Navigation
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