Book Title: Jain Dharm ke Mul Tattva
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf

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Page 7
________________ ३४० जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ की प्रशंसा और दूसरे मत की निन्दा करने में ही अपना पाण्डित्य है। अत: आसक्ति के प्रहाण के लिए व्यावहारिक रूप में परिग्रह का दिखाते हैं और लोक को सत्य से भटकाते हैं, वे एकान्तवादी स्वयं त्याग भी आवश्यक है। संसारचक्र में भटकते रहते हैं। वस्तुत: जहाँ भी आग्रहबुद्धि होगी, परिग्रह या संग्रहवृत्ति सामाजिक हिंसा है। जैन आचार्यों की दृष्टि विपक्ष में निहित सत्य का दर्शन नहीं होगा और जो विपक्ष में निहित में समग्र परिग्रह हिंसा से प्रत्युत्पन्न है, क्योकि बिना हिंसा (शोषण) सत्य नहीं देखेगा, वह सम्पूर्ण सत्य का द्रष्टा नहीं होगा। जैनधर्म के के संग्रह असम्भव है। व्यक्ति संग्रह के द्वारा दूसरों के हितों का हनन अनुसार सत्य का प्रकटन आग्रह में नहीं, अनाग्रह में होता है। सत्य करता है और इस रूप में संग्रह या परिग्रह हिंसा का ही एक रूप का साधक वीतराग और अनाग्रही होता है। जैन धर्म अपने अनेकान्त है। अनासक्ति को जीवन में उतारने के लिए जैन आचार्यों ने यह आवश्यक के सिद्धान्त के द्वारा एक अनाग्रही एवं समन्वयात्मक दृष्टि प्रस्तुत करता माना कि मनुष्य बाह्य-परिग्रह का भी त्याग या परिसीमन करे। परिग्रहहै, ताकि वैचारिक एवं धार्मिक असहिष्णता को समाप्त किया जा सके। त्याग अनासक्त दृष्टि का बाह्य जीवन में दिया गया प्रमाण है। एक ओर विपुल संग्रह और दूसरी ओर अनासक्ति, इन दोनों में कोई मेल अनासक्ति नहीं है। यदि मन में अनासक्ति की भावना का उदय है तो उसे बाह्य व्यक्ति के अन्दर निहित आसक्ति दो रूपों में प्रकट होती हैं- व्यवहार में अनिवार्य रूप से प्रकट होना चाहिए। जैन दर्शन के अनुसार १. संग्रह-भावना और २. भोग-भावना। संग्रह-भावना और भोग-भावना समविभाग और समवितरण साधना का आवश्यक अंग है। इसके बिना से प्रेरित होकर ही मनुष्य दूसरों के अधिकार की वस्तुओं का अपहरण आध्यात्मिक उपलब्धि भी सम्भव नहीं। अत: जैन आचार्यों ने साधना करता है। इस प्रकार आसक्ति बाह्यतः तीन रूपों में प्रकट होती है- की दृष्टि से अपरिग्रह को अनिवार्य तत्त्व माना है। १. अपहरण (शोषण), २. भोग और ३. संग्रह। आसक्ति के तीन इस प्रकार वृत्ति में अनासक्ति, विचार में अनेकान्त और व्यवहार रूपों का निग्रह करने के लिए जैन आचार दर्शन में अस्तेय, ब्रह्मचर्य में अहिंसा जैन साधना का सार हैं। जैन साधक सदैव ही यह प्रार्थना और अपरिग्रह महाव्रतों का विधान है। संग्रहवृत्ति का अपरिग्रह से, करता हैभोगवृत्ति का ब्रह्मचर्य से और अपहरणवृत्ति का अस्तेय महाव्रत से सत्वेषु मैत्री, गुणीषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वं। निग्रह होता है। जैन आचार्यों ने जिस अपरिग्रह के सिद्धान्त का प्रतिपादन माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ सदाममात्मा विद्धातु देव।। किया, उसके मूल में यही अनासक्ति की जीवन दृष्टि कार्य कर रही हे प्रभु! मेरे हृदय में प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभाव, गुणीजनों के है। यद्यपि आसक्ति एक मानसिक तथ्य है, मन की ही एक वृत्ति है, प्रति समादरभाव, दुःखियों के प्रति करुणाभाव और विरोधियों के प्रति तथापि उसका प्रकटन बाह्य है। वह सामाजिक जीवन को दृषित करती मध्यस्थ भाव बना रहे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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