Book Title: Jain Dharm ka Pran Syadvad
Author(s): Mahavirsinh Murdiya
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 4
________________ २६२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड विश्व एक है, अभिन्न है और नित्य है । पर्याय-दृष्टि से विश्व अनेक है, भिन्न है और अनित्य है। निरपेक्ष रहकर दोनों दृष्टि का सत्य पूर्ण सत्य नहीं है। ये सापेक्ष रहकर ही पूर्ण सत्य की व्याख्या कर सकती हैं। सापेक्षवाद के अधिष्ठाता प्रो० आइन्सटीन भी यही कहते हैं "We can only know the relative truth, the absolute truth is known only to the universal observer." (हम केवल आपेक्षिक सत्य को ही जान सकते हैं, सम्पूर्ण सत्य सर्वज्ञ द्वारा ही ज्ञात है।) वास्तव में स्याद्वाद के तथ्य जितने दार्शनिक हैं, उतने ही वैज्ञानिक भी। स्याद्वाद केवल कल्पनाओं का पुलिन्दा नहीं किन्तु जीवन का व्यावहारिक मार्ग है। इसीलिये आचार्यों ने कहा है-उस जगतगुरु स्याद्वाद महासिद्धान्त को नमस्कार हो जिसके बिना लोक व्यवहार भी नहीं चल सकता । यह तो वस्तु तथ्य को पाने का एक यथार्थ मार्ग है। स्याद्वाद का दार्शनिक स्वरूप एवं विशिष्टता स्याद्वाद की सर्वोपरि विशेषता है कि वह किसी वस्तु के एक पक्ष को पकड़कर नहीं कहता है कि यह वस्तु एकान्तत: ऐसी ही है । वह तो 'ही' के स्थान पर 'भी' का प्रयोग करता है। 'ही' एकान्त है। 'भी' वैषम्य एवं संघर्ष के बीज का मूलतः उन्मूलन करके समता तथा सौहार्द के मधुर वातावरण का सृजन करती है। जितने भी एकान्तवादी दर्शन हैं, वे सब वस्तु स्वरूप के सम्बन्ध में एक पक्ष को सर्वथा प्रधानता देकर ही किसी तथ्य का प्रतिपादन करते हैं। सांख्यदर्शन आत्मा को कूटस्थ (एकान्त) नित्य ही मानता है। उसका कहना हैआत्मा सर्वथा नित्य ही है। बौद्ध दर्शन का कहना है-आत्मा अनित्य ही है। आपस में दोनों का विरोध है । जैन दर्शन कहता है-यदि आत्मा एकान्त नित्य ही है तो उसमें नारक, देवता, पशु और मनुष्य के रूप में परिवर्तन क्यों होता है ? कूटस्थ नित्य में तो किसी भी प्रकार का पर्याय परिवर्तन या हेर-फेर नहीं होना चाहिए। क्रोध, अहंकार, माया तथा लोभ के रूप में क्यों रूपान्तर होता है ? अतः आत्मा नित्य ही है, यह कथन भ्रान्त है। यदि आत्मा सर्वथा अनित्य ही है, तो वह वस्तु नहीं है, जो पहले देखी गई है, परन्तु प्रत्यभिज्ञान तो अबाध रूप से होता है, अत: आत्मा सर्वथा अनित्य ही है-यह मान्यता भी त्रुटिपूर्ण है। निष्कर्ष निकला, द्रव्य अपेक्षा से आत्मा नित्य है और पर्याय की अपेक्षा से आत्मा अनित्य है। प्रत्येक दार्शनिक, धार्मिक व सांसारिक समस्या का समाधान स्याद्वाद से किया जा सकता है। समानता को समानता एवं असमानता को असमानता मानने वाला व्यक्ति ही स्याद्वाद का उपासक हो सकता हैं। सब धर्मों में आचार-विषयक जैसे कुछ समानताएँ दृष्टिगोचर होती है उसी प्रकार असमानताएँ भी अनेक हैं। भक्ष्य, अभक्ष्य, पेय, अपेय, कृत्य, अकृत्य' की सब समानताएँ समान ही हैं, यह विचार सर्वथा भ्रान्त है। एकान्त और अनेकान्त के जीवअजीव तत्त्वों के सम्बन्धों में किये गये विवेचन-विश्लेषण में उत्तरी ध्रव तथा दक्षिणी ध्रव जैसा अन्तर होते हुए भी इनमें परस्पर कोई भेद नहीं। सब धर्मों और प्रवर्तकों में पूर्ण साम्य है, यह कहना स्याद्वाद नहीं मृषावाद है। स्याद्वादी का सर्व-धर्म-समन्वय एक भिन्न कोटि का होता है। वह सत्य को सत्य और असत्य को असत्य के रूप में देखता है, मानता है। असत्य का पक्ष न करना और सत्य के प्रति सदा जागरूक रहना ही सच्ची मध्यस्थदृष्टि है । सत्य-असत्य में कोई विवेक न करना यह मध्यस्थदृष्टि नहीं, अज्ञानदृष्टि है। सत्य के प्रति अन्याय न होने पाए और असत्य को प्रश्रय न मिलने पाए, इस अपेक्षा से स्याद्वाद सिद्धान्त के मानने वाले व्यक्ति का मध्यस्थभाव एक अलग ही ढंग का होता है, जिसकी झांकी निम्न श्लोक में देखी जा सकती है तत्रापि न द्वेष कार्यो, विषयवस्तु यत्नतो मृग्यः । तस्यापि च सद्वचनं, सर्व यत्प्रवचनादन्यत् ।। षोडशक, १६. १३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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