Book Title: Jain Dharm ka Pran Syadvad
Author(s): Mahavirsinh Murdiya
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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________________ स्याद्वाद भारतीय दर्शनों की संयोजक कड़ी और जैन दर्शन का हृदय है । इसके बीज आज से सहस्रों वर्ष पूर्व सम्भाषित जैन आगमों में उत्पाद, व्यय, धौव्य, स्यादस्ति स्यान्नास्ति, द्रव्य, गुण, पर्याय, सप्त नय आदि विविध रूपों में बिखरे पड़े हैं । सिद्धसेन, समन्तभद्र आदि जैन दार्शनिकों ने सप्तभंगी आदि के रूप में तार्किक पद्धति से स्वाद्वाद को एक व्यवस्थित रूप दिया । तदनन्तर अनेक आचार्यों ने इस पर अगाध वाङ्मय रचा जो आज भी उसके गौरव का परिचय देता है । विगत ढाई हजार वर्षों से स्याद्वाद दार्शनिक जगत् का एक सजीव पहलू रहा और आज भी है । जैन धर्म का प्राणः स्याद्वाद D डॉ० महावीरसिंह मडिया ( सहायक प्रोफेसर, रसायनशास्त्र विभाग, उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर ) स्याद्वाद सिद्धान्त जैन तीर्थंकरों की मौलिक देन है, क्योंकि यह ज्ञान का एक अंग है, जो तीर्थंकरों के केवलज्ञान में स्वत: ही प्रतिबिम्बित होता है । स्याद्वाद सिद्धान्त के द्वारा मानसिक मतभेद समाप्त हो जाते हैं और वस्तु का यथार्थ स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। इसको पाकर मानव अन्तर्द्रष्टा बनता है । स्याद्वाद का प्रयोग जीवन व्यवहार में समन्वयपरक है । वह समता और शान्ति को सजता है । बुद्धि के वैषम्य को मिटाता है । स्याद्वाद सिद्धान्त की चमत्कारी शक्ति और सार्वभौम प्रभाव को हृदयंगम करके डॉ० हर्मन जकोबी नामक प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक ने कहा है -- स्याद्वाद से सब सत्य विचारों का द्वार खुल जाता है। अमेरिका के दार्शनिक विद्वान् प्रो० आचि जे० बन्ह ने इस सिद्धान्त का अध्ययन कर निम्न प्रेरणा भरे शब्द कहे हैं--- "विश्व शान्ति की स्थापना के लिये जैनों को अहिंसा की अपेक्षा स्याद्वाद सिद्धान्त का अत्यधिक प्रचार करना उचित है।" स्याद्वाद एक तर्क व्यूह के रूप में ग्रहीत नहीं हुआ, किन्तु सत्य के एक द्वार के रूप में ग्रहीत हुआ । आज स्याद्वाद जैन दर्शन का पर्याय बन गया है तथा जैन दर्शन का अर्थ स्याद्वाद के रूप में लिया जाता है। वास्तव में स्याद्वाद जैन दर्शन का प्राण है। जैन आचायों के सारे दार्शनिक चिन्तन का आधार स्थाद्वाद है। स्याद्वाद का स्वरूप एवं महत्त्व 'स्याद्' और 'वाद' दो शब्द मिलकर स्पाद्वाद की संघटना हुई है। स्याद् कचित् का पर्यायवाची संस्कृत भाषा का एक अव्यय है। इसका अर्थ है किसी प्रकार से किसी अपेक्षा से । वस्तुतत्त्व निर्णय में जो वाद अपेक्षा की प्रधानता पर आधारित है, वह स्याद्वाद है । यह इसकी शाब्दिक व्युत्पत्ति है । किसी एक ही पक्ष को देखकर वस्तु के स्वरूप के सम्बन्ध में निर्णय करना एकान्त निर्णय है और इसलिये गलत है । स्याद्वाद के अनुसार किसी भी विषय का निर्णय करने से पहले, उसके हर पहलू की जाँच करना चाहिये । प्रत्येक वस्तु के अनन्त पक्ष, अनेक अन्त होते हैं । इतना ही नहीं प्रत्येक वस्तु में आपस में विरोधी अनन्त गुण-धर्मात्मक, अनेक प्रकार की विविधाएँ भरी हुई हैं। इस दृष्टि से जैन दार्शनिकों का कहना है कि जो वस्तु तत्त्व रूप है, वह अतत्त्वरूप भी है। जो वस्तु सत् है, वह असत् भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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