Book Title: Jain Dharm ka Pran Syadvad
Author(s): Mahavirsinh Murdiya
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 3
________________ जन-दर्शन का प्राण : स्याद्वाद २६१ ........................................................................... करने लगते हैं। वस्तुत: वस्तु न एकान्त नित्य है और न एकान्त अनित्य । उसमें एकत्व भी है और अनेकत्व भी है। वस्तु अनन्त-अनेक धर्मों से युक्त है। इसलिये उसे एक स्वरूप या एक ही धर्म वे युक्त कहना सत्य का तिरस्कार करना है। भगवती सूत्र श० ६, उ०६, सूत्र ३८७ में जीव नित्य है या अनित्य, इस विषय को स्पष्ट करते हुए भगवान महावीर जमालि को समझा रहे हैं-हे जमालि ! जीव शाश्वत है, नित्य है, ध्रव है, अक्षय है, क्योंकि भूत, भविष्य, वर्तमान-तीनों कालों में ऐसा कोई क्षण नहीं, जिस समय जीव का अस्तित्व न रहा है। हे जमालि ! जीव अशाश्वत है, क्योंकि यह नरक भव का त्याग कर तिर्यञ्च योनि में उत्पन्न होता है। तिर्यञ्च भव से निकलकर मनुष्य बनता है। मनुष्य से देवगति को प्राप्त करता है। इस प्रकार विभिन्न अवस्थाओं में परिवर्तित होने के कारण वह अनित्य है। इसी प्रकार सोमिल के प्रश्नों का उत्तर देते हुए भगवान महावीर कहते हैं-हे सोमिल ! द्रव्य दृष्टि से मैं एक हूँ, ज्ञान और दर्शन की अपेक्षा से मैं एक नहीं दो हूँ। कभी नहीं बदलने वाले आत्मप्रदेशों की दृष्टि से मैं अक्षय हूँ, अव्यय हूँ, अवस्थित हूँ और परिवर्तनशील उपयोग की दृष्टि की अपेक्षा से मैं अनेक रूप हूँ। स्याद्वाद के अनुसार जीव सान्त भी है, और अनन्त भी है। द्रव्य-दृष्टि से जीव द्रव्य एक है अतः वह सान्त है। काल की अपेक्षा से जीव सदा-सर्वदा से है और सर्वदा रहेगा, इसलिये वह अनन्त है। भाव की अपेक्षा से जीव के अनन्त ज्ञान पर्याय हैं, अनन्त दर्शन पर्याय है, अनन्त चारित्र पर्याय हैं, अनन्त अगुरुलघु पर्याय हैं, इस कारण वह अनन्त है। इस प्रकार द्रव्य और क्षेत्र की अपेक्षा से जीव ससीम है, इसलिये वह सान्त है। काल और भाव की अपेक्षा से वह असीम है, अत: अनन्त है। उपर्युक्त विवेचन से यह बात स्पष्ट है कि एक और अनेक, नित्य और अनित्य, सान्त और अनन्त धर्मों का स्याद्वाद के द्वारा भली-भांति समन्वय होता है, तथा स्याद्वाद के द्वारा वस्तु के यथार्थ एवं सत्य स्वरूप को समझकर दार्शनिक संघर्ष समाप्त किये जा सकते हैं। एकान्त आग्रह सत्य पर अवलम्बित होने पर भी संघर्षों की जड़ है और वैमनस्य, राग-द्वेष, वैर एवं विरोध बढ़ाने वाला है। अत: पूर्ण सत्य को जानने, देखने एवं पूर्ण शान्ति को प्राप्त करने का सही मार्ग स्याद्वाद है। आइन्सटीन का सापेक्षवाद और स्याद्वाद सापेक्षवाद वैज्ञानिक जगत में बीसवीं सदी की एक महान देन है। इसके आविष्कर्ता सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो० अलबर्ट आइन्सटीन हैं, जो पाश्चात्य देशों में सर्वसम्मति से संसार के सबसे अधिक विलक्षण पुरुष माने गये हैं। सन् १९०५ में आइन्सटीन ने 'सीमित सापेक्षता' शीर्षक एक निबन्ध लिखा जो 'भौतिकशास्त्र का वर्ष पत्र' नामक जर्मन पत्रिका में प्रकाशित हुआ। इस निबन्ध ने विज्ञान की बहुत सी बद्धमूल धारणाओं पर प्रहार कर एक नया मानदण्ड स्थापित किया। अस्ति, नास्ति की बात जैसे स्याद्वाद में पद-पद पर मिलती है, वैसे ही है और नहीं (अस्ति, नास्ति) की बात सापेक्षवाद में भी मिलती है। जिस पदार्थ के विषय में साधारणतया हम कहते हैं कि यह १५४ किलो का है। सापेक्षवाद कहता है कि यह है भी और नहीं भी। क्योंकि भूमध्य रेखा पर यह १५४ किलो है, पर दक्षिणी या उत्तरी ध्रुव पर १५५ किलो है। गति तथा स्थिति को लेकर भी यह बदलता रहता है। गति और स्थिति अपेक्षिक धर्म है । एक जहाज जो स्थिर है, वह पृथ्वी की अपेक्षा से ही स्थिर है, लेकिन पृथ्वी सूर्य की अपेक्षा से गति में है और जहाज भी इसके साथ गति में है। स्याद्वाद के अनुसार प्रत्येक ग्रह व प्रत्येक पदार्थ चर भी है और स्थिर भी है । स्याद्वादी कहते हैं -परमाणु नित्य भी है और अनित्य भी । संसार शाश्वत भी है और अशाश्वत भी है । आकाश सर्वत्र व्याप्त है। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय असंख्य योजन तक सहवर्ती है। द्रव्य-दृष्टि से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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