Book Title: Jain Dharm ka Pran Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 7
________________ १२२ जैन धर्म और दर्शन अन्यान्य भावनाओं के साथ मिलकर भिन्न हो गई है । अर्जुन को साम्य भावना के प्रबल आवेग के समय भी भैक्ष्य जीवन स्वीकार करने से गीता रोकती है और शस्त्र युद्ध का आदेश करती है, जब कि आचारांग सूत्र अर्जुन को ऐसा आदेश न करके यही कहेगा कि अगर तुम सचमुच क्षत्रिय वीर हो तो साम्यदृष्टि आने पर हिंसक शस्त्र युद्ध नहीं कर सकते बल्कि भैक्ष्यजीवनपूर्वक आध्यात्मिक शत्रु के साथ युद्ध के द्वारा ही सच्चा क्षत्रियत्व सिद्ध कर सकते हो।' इस कथन की द्योतक भरत-बाहुबली की कथा जैन साहित्य में प्रसिद्ध है, जिसमें कहा गया है कि सहोदर भरत के द्वारा उग्र प्रहार पाने के बाद बाहुबली ने जब प्रतिकार के लिए हाथ उठाया तभी समभाव की वृत्ति प्रकट हुई । उस वृत्ति के आवेग में बाहुबली ने भैक्ष्य जीवन स्वीकार किया पर प्रतिप्रहार करके न तो भरत का बदला चुकाया और न उससे अपनो न्यायोचित राज्यभाग लेने का सोचा । गांधीजी ने गीता और प्राचारांग आदि में प्रतिपादित साम्य भाव को अपने जीवन में यथार्थ रूप से विकसित किया और उसके बल पर कहा कि मानवसंहारक युद्ध तो छोड़ो, पर साम्य या चित्तशुद्धि के बल पर ही अन्याय के प्रतिकार का मार्ग भी ग्रहण करो। पुराने संन्यास या त्यागी जीवन का ऐसा अर्थ विकास गांधीजी ने समाज में प्रतिष्ठित किया है। साभ्यष्टि और अनेकान्तवाद __ जैन परंपरा का साम्य दृष्टि पर इतना अधिक भार है कि उसने साम्य दृष्टि को ही ब्राह्मण परंपरा में लब्धप्रतिष्ठ ब्रह्म कहकर साम्यदृष्टिपोषक सारे प्राचार विचार को 'ब्रह्मचर्य'-'बम्भचेराई' कहा है, जैसा कि चौद्ध परंपरा ने मैत्री आदि भावनाओं को ब्रह्मविहार कहा है । इतना ही नहीं पर धम्मपद २ और शांति पर्व की तरह जैन ग्रन्थ' में भी समत्व धारण करनेवाले श्रमण को ही ब्राह्मण कहकर श्रमण और ब्राह्मण के बीच का अंतर मिटाने का प्रयत्न किया है। __साम्यदृष्टि जैन परम्परा में मुख्यतया दो प्रकार से व्यक्त हुई है-१) आचार में और (२) विचार में । जैन धर्म का बाह्य-आभ्यन्तर, स्थूल-सूक्ष्म सत्र प्राचार साम्य दृष्टि मूलक अहिंसा के केन्द्र के आसपास ही निर्मित हुआ है । जिस प्राचार के द्वारा अहिंसा की रक्षा और पुष्टि न होती हो ऐसे किसी भी प्राचार को जैन परम्परा मान्य नहीं रखती। यद्यपि सब धार्मिक परम्पराओं ने अहिंसा तत्त्व पर ... १. श्राचारांग १-५-३ । २. ब्राहाण वर्ग २६ । ३. उन्तराध्ययन २५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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