Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 10
________________ जैन धर्म का प्राण १२५ द्वैतवादी जैन श्रादि परम्पराओं के और अद्वैतवादी परम्परा के बीच अंतर केवल इतना ही है कि पहली परंपराएँ प्रत्येक जीवात्मा का वास्तविक भेद मान कर भी उन सब में तात्त्विक रूप से समानता स्वीकार करके अहिंसा का उद्बोधन करती हैं, जब कि अद्वैत परम्परा जीवात्मानों के पारस्परिक भेद को ही मिथ्या मानकर उनमें ताविक रूप से पूर्ण अभेद मानकर उसके आधार पर अहिंसा का उद्बोधन करती हैं । अद्वैत परम्परा के अनुसार भिन्न-भिन्न योनि और भिन्नभिन्न गतिवाले जीवों में दिखाई देनेवाले भेद का मूल अधिष्ठान एक शुद्ध अखंड ब्रह्म है, जब कि जैन जैसी द्वैतवादी परम्परात्रों के अनुसार प्रत्येक जीवात्मा तत्त्व रूप से स्वतंत्र और शुद्ध ब्रह्म है । एक परम्परा के अनुसार अखंड एक ब्रह्म में से नानाजीव की सुष्टि हुई है जब कि दूसरी परम्पराओं के अनुसार जुदेजुदे स्वतंत्र और समान अनेक शुद्ध ब्रह्म ही अनेक जीव हैं : द्वैतमूलक समानता के सिद्धान्त में से ही अद्वैतमूलक ऐक्य का सिद्धान्त क्रमशः विकसित हुआ जान पड़ता है परन्तु अहिंसा का आचार और आध्यात्मिक उत्क्रान्तिवाद अद्वैतवाद में भी द्वैतवाद के विचार के अनुसार ही घटाया गया है। वाद कोई भी हो पर अहिंसा की दृष्टि से महत्त्व की बात एक ही है कि अन्य जीवों के साथ समानता या अभेद का वास्तविक संवेदन होना ही अहिंसा की भावना का उद्गम है। कर्मविद्या और बंध-मोक्ष जब तत्त्वतः सब जीवात्मा समान हैं तो फिर उनमें परस्पर वैषम्य क्यों, तथा एक ही जीवात्मा में काल मेद से वैषम्य क्यों ? इस प्रश्न के उत्तर में से ही कर्मविद्या का जन्म हुआ है । जैसा कर्म वैसी अवस्था यह मान्यता वैषम्य का स्पष्टीकरण तो कर देती है, पर साथ ही साथ यह भी कहती है कि अच्छा या बुरा कम करने एवं न करने में जीव ही स्वतंत्र है, जैसा वह चाहे वैसा सत् या असत् पुरुषार्थ कर सकता है और वही अपने वर्तमान और भावी का निर्माता है । कर्मः वाद कहता है कि वर्तमान का निर्माण भूत के आधार पर और भविष्य का निर्माण वर्तमान के आधार पर होता है। तीनों काल की पारस्परिक संगति कर्मवाद पर ही अवलंबित है । यही पुनर्जन्म के विचार का आधार है। वस्तुतः अज्ञान और राग-द्वेष ही कर्म है । अपने पराये की वास्तविक प्रतीति न होना अज्ञान या जैन परम्परा के अनुसार दर्शन मोह है । इसी को सांख्य, बौद्ध आदि अन्य परम्पराओं में अविद्या कहा है। अज्ञान-जनित इष्टानिष्ट की कल्पनाओं के कारण जो-जो वृत्तियाँ, या जो-जो विकार पैदा होते हैं वही संक्षेप में राग-द्वेष कहे गए हैं। यद्यपि राग-द्वेष ही हिंसा के प्रेरक हैं पर वस्तुतः सब की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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