Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 12
________________ जैन धर्म का प्राण १२७ (२) सांख्य योग परंपरा के अनुसार आत्मा भिन्न-भिन्न है पर वह कटस्थ एवं व्यापक होने से न कर्म का कर्ता. भोक्ता, जन्मान्तरगामी, गतिशील है और न तो मुक्तिगामी ही है। उस परंपरा के अनुसार तो प्राकृत बुद्धि या अन्तःकरण ही कर्म का कर्ता भोक्ता जन्मान्तरगामी संकोच विस्तारशील. शान-अज्ञान आदि भावों का प्राश्रय और मुक्ति-काल में उन भावों से रहित है । सांख्य योग परंपरा अन्तःकरण के बंधमोक्ष को ही उपचार से पुरुष के मान लेती है। (३) न्यायवैशेषिक परंपरा के अनुसार अात्मा अनेक हैं, वह सांख्य योग की तरह कूटस्थ और व्यापक माना गया है फिर भी वह जैन परंपरा की तरह वास्तविक रूप से कत्ता, भोक्ता, बद्ध और मुक्त भी माना गया है । (४) अद्वैतवादी वेदान्त के अनुसार आत्मा वास्तव में नाना नहीं पर एक ही है । वह सांख्य योग की तरह कूटस्थ और व्यापक है अतएव न. तो वास्तव में बद्ध है और न मुक्त । उसमें अन्तःकरण का बंधमोक्ष ही उपचार से माना गया है। (५) बौद्धमत के अनुसार आत्मा या चित्त नाना है; वही कर्ता, भोक्ता, बंध और निर्वाण का आश्रय है। वह न तो कूटस्थ है, न व्यापक, वह केवल ज्ञानक्षणपरंपरा रूप है जो हृदय इन्द्रिय जैसे अनेक केन्द्रों में एक साथ या क्रमशः निमित्तानुसार उत्पन्न व नष्ट होता रहता है । ऊपर के संक्षिप्त वर्णन से यह स्पष्टतया सूचित होता है कि जैन परंपरा संमत अात्मस्वरूप बंधमोक्ष के तत्वचिंतकों की कल्पना का अनुभवमूलक पुराना रूप है । सांख्ययोग संमत आत्मस्वरूप उन तत्त्वचिंतकों की कल्पना की दूसरी भूमिका है । अद्वैतवाद संमत अात्मस्वरूप सांख्ययोग की बहुत्वविषयक कल्पना का एकस्वरूप में परिमार्जनमात्र है, जब कि न्यायवैशेषिक संमत आत्मस्वरूप जैन और सांख्ययोग की कल्पना का मिश्रणमात्र है । बौद्ध संमत आत्मस्वरूप जैन कल्पना का ही तर्कशोधित रूप है। एकत्वरूप चारित्रविद्या श्रात्मा और कर्म के स्वरूप को जानने के बाद ही यह जाना जा सकता है कि आध्यात्मिक उत्क्रान्ति म चारित्र का. क्या स्थान है । मोक्षतत्त्वचिंतकों के अनुसार चारित्र का उद्देश्य आत्मा को कम से मुक्त करना ही है । चारित्र के द्वारा कर्म से मुक्ति मान लेने पर भी यह प्रश्न रहता ही है कि स्वभाव से शुद्ध ऐसे श्रात्मा के साथ पहले-पहल कम का संबंध कब और क्यों हुआ या ऐसा संबंध किसने किया ? इसी तरह यह भी प्रश्न उपस्थित होता है कि स्वभाव से शुद्ध ऐसे आत्मतत्त्व के साथ यदि किसी न किसी तरह से कर्म का संबन्ध हुश्रा माना जाए तो चारित्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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