Book Title: Jain Dharm ka Ek Vilupta Sampraday Yapaniya Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 4
________________ ६१८ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ देता है । आश्चर्य यह है कि स्त्रीमुक्ति एवं केवलीकवलाहार का निषेध श्वेताम्बर परम्परा में मतभेद और संघभेद सम्बन्धी जो सूचनायें करने वाली दिगम्बर परम्परा का उल्लेख तो विक्रम की आठवीं शती के उपलब्ध हैं, उनमें प्रथमतः स्थानाङ्ग एवं आवश्यकनियुक्ति में सात पूर्व किसी भी श्वेताम्बर ग्रन्थ में नहीं मिलता है । साहित्यिक दृष्टि से निह्नवों की चर्चा है । ये सात निह्नव जामालि, तिष्यगुप्त, आषाढ़, यापनीय सम्प्रदाय के सम्बन्ध में जो उल्लेख उपलब्ध हैं वे लगभग ईसा अश्वमित्र, गंग, रोहगुप्त और गोष्टमहिल हैं। इनमें प्रथम दो महावीर के की ५वीं शताब्दी या उसके पश्चात् के हैं । यद्यपि ऐसा लगता है कि जीवन काल में और शेष पाँच उनके निर्वाण के पश्चात् २१४ से ५८४ इसके पूर्व भी यह सम्प्रदाय अस्तित्व में तो अवश्य ही आ गया था। वर्ष के बीच में हुए हैं२८ । किन्तु इनमें बोटिक या बोडिय का कहीं भी जहाँ तक अभिलेखीय साक्ष्यों का प्रश्न है, मथुरा के ईसा की उल्लेख नहीं है । हम ऊपर देख चुके हैं कि बोडिय (बोटिक) का प्रथम और द्वितीय शताब्दी के जो जैन अभिलेख उपलब्ध हैं, इनमें सर्वप्रथम उल्लेख आवश्यकमूलभाष्य में है । इसके अनुसार वीर निवार्ण गणों, शाखाओं, कुलों एवं सम्भोगों के उल्लेख मिलते हैं । ये समस्त के ६०९ वर्ष के पश्चात् रथवीरपुर नगर के दीपक उद्यान में अज्ज कण्ह गण, कुल, शाखायें और सम्भोग कल्पसूत्र की स्थविरावली के अनुसार के शिष्य शिवभूति द्वारा बोटिक परम्परा की उत्पत्ति हुई२९ । ही हैं२२ । दिगम्बर साहित्य में हमें इन गणों, शाखाओं एवं कुलों का आवश्यकमूलभाष्य, आवश्यकनियुक्ति एवं विशेषावश्यकभाष्य के मध्यकाल किञ्चित भी संकेत उपलब्ध नहीं होता है । यद्यपि मथुरा से उपलब्ध उन की रचना है । उपलब्ध आवश्यकनियुक्ति वीर निर्वाण के पश्चात् ५८४ सभी मूर्तियों और आयागपट्टों (जिनपर ये अभिलेख अंकित हैं) में वर्ष तक की अर्थात् ईसा की प्रथम शती की घटनाओं का उल्लेख तीर्थङ्कर को नग्न रूप में अंकित किया गया है किन्तु वहीं उसी काल करती है, अत: उसके पश्चात् ही उसका रचना काल माना जा सकता में कल्पसूत्र एवं आचाराङ्ग (द्वितीय श्रुतस्कंध) में उल्लिखित महावीर के है । विशेषावश्यकभाष्य का रचनाकाल सामान्यतया ईसा की छठी गर्भपरिवर्तन की घटना का अंकन भी उपलब्ध होता है२४ । साथ ही उन शताब्दी का अन्तिम चरण (शक ५३१ के पूर्व ) माना जाता है । अभिलेखों में कल्पसूत्र के अनुरूप गण, कुल,, शाखा और संभोगों के अत: इस अवधि के बीच ही बोटिक मत या यापनीय परम्परा का उल्लेख यह सूचित करते हैं कि ये सभी अभिलेख और मूर्तियाँ दिगम्बर प्रादुर्भाव हुआ होगा । आवश्यकमूलभाष्य में जो वीर निर्वाण के ६०९ परम्परा से सम्बद्ध नहीं हैं । पुन: मथुरा के प्राचीन शिल्प में मुनि के हाथ वर्ष बाद अर्थात् ईसा की द्वितीय शती में इस सम्प्रदाय की उत्पत्ति का की कलाई पर लटकते हुए वस्त्र-खण्ड का अंकन भी जिससे वे अपनी उल्लेख है, वह किसी सीमा तक सत्य प्रतीत होता है। नग्नता को छिपाये हुए हैं, इस शिल्प को दिगम्बर परम्परा से पृथक् दिगम्बर परम्परा में जैन संघ के विभाजन की सूचना देने करता है२५ । पुनः मथुरा का जैन शिल्प यापनीय भी नहीं कहा जा वाला कोई प्राचीन ग्रंथ नहीं है, मात्र ई० सन् ९४२ (वि० सं०९९९) सकता है क्योंकि यापनीय परम्परा की उत्पत्ति इससे परवर्ती है इसमें में देवसेन द्वारा रचित 'दर्शनसार' है३२ । इस ग्रन्थ के अनुसार विक्रम आर्य कृष्ण (अज्ज कण्ह) का जिनके शिष्य शिवभूति से आवश्यक की मृत्यु के १३६ वर्ष पश्चात् सौराष्ट्र देश के वलभी नगरी में श्वेताम्बर मूलभाष्य में बोटिक या यापनीय परम्परा का विकास माना गया है, संघ की उत्पत्ति हुई। इसमें यह भी कहा गया है कि श्रीकलश नामक नामोल्लेख पूर्वक अंकन उपलब्ध है । पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने श्वेताम्बर मुनि से विक्रम संवत् २०५ में यापनीय संघ उत्पन्न हुआ। इसे अर्धस्फालक सम्प्रदाय का माना है२६, किन्तु इस सम्प्रदाय के चूँकि 'दर्शनसार' आवश्यकमूलभाष्य की अपेक्षा पर्याप्त परवर्ती है अस्तित्व का दशवीं शती के पूर्व का कोई भी साहित्यिक या अभिलेखीय अत: उसके विवरणों की प्रामाणिकता को स्वीकार करने में विशेष साक्ष्य नहीं है । पं० नाथूरामजी प्रेमी के अनुसार ऐसा कोई सम्प्रदाय सतर्कता की आवश्यकता है, फिर भी इतना निश्चित है कि जब नहीं था। यह मात्र संघभेद के पूर्व की स्थिति है२७ । सत्य तो यह है कि आवश्यकमूलभाष्य और दर्शनसार दोनों ही वि० सं० १३६ अथवा यापनीयों या बोटिकों ने आर्य कृष्ण के उसी वस्त्रखण्ड का विरोध करके १३९ या वीर निर्वाण संवत् ६०६ या ६०९ में संघ भेद की घटना का अचेलक परम्परा के पुन: स्थापन का प्रयत्न किया था । देश-काल के उल्लेख करते हैं तो एक दूसरे से पुष्टि होने के कारण इस तथ्य को प्रवाह में जैन संघ में जो परिवर्तन आ रहे थे उसी का विरोध यापनीयों अप्रामाणिक नहीं माना जा सकता कि विक्रम सम्वत् की प्रथम शती के या बोटिकों की उत्पत्ति का कारण बना। अन्त या द्वितीय शताब्दी के प्रारम्भ में जैनों में स्पष्ट रूप से संघभेद इस प्रकार अभिलेखीय और साहित्यिक दोनों ही प्रमाणों से हो गया । 'दर्शनसार' में इस संघ भेद की घटना के ७० वर्ष पश्चात् यह निष्कर्ष निकलता है कि ईसा की लगभग दूसरी शताब्दी तक चाहे यापनीय संघ की उत्पत्ति का उल्लेख है । आवश्यकमूलभाष्य में भी महावीर के धर्मसंघ में विभिन्न गण, शाखा, कुल और सम्भोग अस्तित्व कहा गया है कि शिवभूति के शिष्य कौडिन्य और कोट्टवीर से यह में आ गये थे, फिर भी श्वेताम्बर, दिगम्बर या यापनीय जैसे वर्गों का परम्परा आगे चली५ । अत: यह मानने में विशेष बाधा नहीं आती कि स्पष्ट विभाजन नहीं हो पाया था । अत: यह स्पष्ट है कि जैन धर्म में यही बोटिक सम्प्रदाय जिसका उल्लेख आवश्यकमूलभाष्य में मिलता श्वेताम्बर, दिगम्बर एवं यापनीय सम्प्रदाय ईसा की तीसरी शती या है, ईसा की दूसरी शताब्दी के अन्त में एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय के रूप उसके पश्चात् ही अस्तित्व में आये हैं । यद्यपि इस संघ-भेद के मूल में विकसित हुआ होगा । यद्यपि यह प्रश्न अनिर्णीत ही है कि उसने कारण इसके पूर्व भी भीतर-भीतर अपनी जड़ें जमा चुके थे। पूर्ण स्वतंत्र होकर 'यापनीय' नाम कब धारण किया, क्योंकि 'यापनीय' Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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