Book Title: Jain Dharm ka Ek Vilupta Sampraday Yapaniya
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf

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Page 1
________________ जैन धर्म का एक विलुप्त सम्प्रदाय यापनीय सामान्यतया आज विद्वत्वर्ग और जन-साधारण जैन धर्म के दो प्रमुख सम्प्रदायों श्वेताम्बर और दिगम्बर से ही परिचित हैं किन्तु उसका 'यापनीय' नामक एक अन्य महत्त्वपूर्ण सम्प्रदाय भी था, जो ई० सन् की दूसरी शती से पन्द्रहवीं शताब्दी तक (लगभग १४०० वर्ष ) जीवित रहा और जिसने न केवल अनेक जिन-मन्दिर बनवाये एवं मूर्तियाँ स्थापित कीं, अपितु जैन-साहित्य क्षेत्र में और विशेषकर शौरसेनी जैन साहित्य के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण अवदान प्रदान किया। यह सम्प्रदाय आज से ५० वर्ष पूर्व तक जैन समाज के लिए पूर्णत: अज्ञात बना हुआ था। संयोग से विगत ५० वर्षों की शोधात्मक प्रवृत्तियों के कारण इस सम्प्रदाय के कुछ अभिलेख एवं ग्रन्थ प्रकाश में आये हैं। फिर भी अभी तक इस सम्प्रदाय पर चार-पाँच लेखों के अतिरिक्त कोई भी विशेष सामग्री प्रकाशित नहीं हुई है। सर्वप्रथम प्रो० ए. एन उपाध्ये एवं पं० नाथूराम जी प्रेमी ने ही इस सम्बन्ध में कुछ लेख प्रकाशित किये थे किन्तु उनके पश्चात् इस दिशा में पुनः उदासीनता आ गई है । प्रस्तुत लेख उसी उदासीनता को तोड़ने का एक प्रयास मात्र है। आशा है जैन विद्या के विद्वान इस दिशा में सक्रिय होंगे। 1 1 आज विशृङ्खलित होते हुए जैन समाज के लिए इस सम्प्रदाय का ज्ञान और भी आवश्यक है क्योंकि इस सम्प्रदाय की मान्यताएँ आज भी जैनधर्म की दिगम्बर और श्वेताम्बर शाखाओं के बीच योजक कड़ी बन सकती हैं। दुर्भाग्य से आज भी अनेक जैन विद्वान् और मुनिजन यह नहीं जानते हैं कि एक ऐसा सम्प्रदाय जो श्वेताम्बर और दिगम्बर के मध्य एक योजक कड़ी के रूप में विद्यमान था एवं लगभग १४०० वर्षों तक अपने को जीवित बनाये रखकर आज से ६०० वर्ष पूर्व काल के गर्भ में ऐसा विलीन हो गया कि आज लोग उसका नाम तक नहीं जानते हैं आज जैन धर्म में 'यापनीय' परम्परा का कोई भी अनुयायी नहीं है। यह परम्परा आज मात्र इतिहास की वस्तु बनकर रह गयी है किन्तु इनके द्वारा स्थापित मन्दिर एवं मूर्तियाँ तथा सृजित साहित्य सहज ही आज हमें उसका स्मरण करा देते हैं। आज जब जैन धर्म में भी साम्प्रदायिक अभिनिवेश दृढमूल होता जा रहा है, यापनीय संघ के इतिहास और उनकी मान्यताओं का बोध न केवल जैन संघ में समन्वय का सूत्रपात कर सकता है, वरन् टूटते हुए जैन संघ को पुनः एकता की कड़ी में जोड़ सकता है। वस्तुतः 'यापनीय' परम्परा वह सेतु है जो श्वेताम्बर और दिगम्बर के बीच की खाई को पाटने में आज भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। अग्रिम पंक्तियों में हम ऐसे महत्त्वपूर्ण और समन्वयवादी सम्प्रदाय के सन्दर्भ में गवेषणात्मक दृष्टि से कुछ विचार करने का प्रयत्न करेंगे। । Jain Education International शब्द के अनेक रूप उपलब्ध होते हैं यथा- यापनीय, जापनीय, यपनी, आपनीय, यापुलिय, आपुलिय, जापुलिय, जावुलीय, जाविलिय, जावलिय जावलिगेय, आदि आदि सर्वप्रथम 'यापनीय' शब्द का प्रयोग हमें जैन आगम साहित्य और पाली त्रिपिटक साहित्य में प्राप्त होता है। प्राकृत और पाली साहित्य में 'यापनीय' शब्द का प्रयोग कुशल-क्षेम पूछने के प्रसंग में ही हुआ है। दूसरों से कुशल-क्षेम पूछते समय यह पूछा जाता था कि आपका 'यापनीय' कैसा है (किं यापनीयं ? ) । 'भगवती' नामक जैन आगम में यापनीय का प्राकृत रूप 'जावनिच्च' प्राप्त होता है। भगवती में सोमिल नामक ब्राह्मण भगवान महावीर से प्रश्न करता है- हे भन्ते आपकी यात्रा कैसी हुई? आपका यापनीय कैसा है ? आपका स्वास्थ्य (अव्वावह) कैसा है ? आपका विहार कैसा है ?३ भगवती और ज्ञाताधर्मकथा में इस प्रसंग में दो प्रकार से यापनीयों की चर्चा हुई है इन्द्रिय यापनीय और नो इन्द्रिय यापनीय । इन्द्रिय यापनीय की व्याख्या करते हुए भगवान् महावीर ने कहा था कि मेरी श्रोत्र आदि पाँचों इन्द्रियाँ व्याधिरहित एवं मेरे नियन्त्रण में हैं । इसी प्रकार नो-इन्द्रिय यापनीय को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था कि मेरे क्रोध, मान, माया, लोभ विच्छिन्न या निर्मूल हो गये हैं, अब वे अभिव्यक्त वा प्रकट नहीं होते है? ! उपर्युक्त चर्चा से स्पष्ट रूप से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भगवतीसूत्र में इन्द्रिय और मन की नियन्त्रित एवं शान्त स्थिति के अर्थ में ही यापनीय शब्द का प्रयोग हुआ है। इन्द्रियों की वृत्तियों और मन की वासनाओं का शान्त एवं नियन्त्रित होना ही यापनीय की कुशलता का सूचक है । वस्तुतः यह मनुष्य के मानसिक कुशल क्षेम का सूचक है। 'किं जवणिच्च' का अर्थ है आपकी मनोदशा कैसी है ? अतः यापनीय शब्द मनोदशा (Mood) या मानसिक स्थिति (Mental state) का सूचक है। इस शब्द का प्रयोग मन की प्रसन्नता को जानने के लिए प्रश्न के रूप में किया जाता था । बौद्ध पाली साहित्य में भी इस शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में हुआ है। भगवान बुद्ध का अपने ग्राम में आगमन होने पर भृगु, भगवान से भगवान से पूछते हैं कि हे भिक्षु आपका क्षमा-भाव कैसा है ? आपका यापनीय कैसा है ? आपको आहार आदि के लाभ में कोई कठिनाई तो नहीं है ? प्रत्युत्तर में भगवान बुद्ध ने कहा, मेरा क्षमा-भाव (क्षमनीय) अच्छा है, मेरा यापनीय सुन्दर है। मुझे आहार-लाभ में कोई कठिनाई नहीं है। इस प्रकार यहाँ भी यापनीय शब्द जीवन-यात्रा के कुशल-क्षेम के सन्दर्भ में ही प्रयुक्त हुआ है। 'किच्च यापनीय' का अर्थ है आपकी जीवन-यात्रा कैसी चल रही है ? इस प्रकार हम देखते है कि जहाँ पाली साहित्य में 'यापनीय' शब्द जीवन यात्रा के सामान्य अर्थ का सूचक है। वहाँ जैन साहित्य में यापनीय शब्द का अर्थ भाषा एवं उच्चारण भेद के आधार पर आज हमें 'यापनीय' वह इन्द्रियों एवं मन की वृत्तियों या मनोदशा का सूचक है, भगवती For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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