Book Title: Jain Dharm Prakash 1948 Pustak 064 Ank 08
Author(s): Jain Dharm Prasarak Sabha
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

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Page 29
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org .. ८] निर्देश भा. ओ. इ. पुने संग्रहित किया गया है ऐसा समझना चाहिए । कुलक" जर जैरवनाएँ प्रो. H. 1) वेलणकर संपादित जनश Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूची के समय कुलकों को स्वयं न देखने के कारण संभव है कई भिन्न नामद्वय एवं गाथाओं की कमी होगी। रचयिता के निर्देश न होने के दो बार लिखे गये है । इसी प्रकार कड़ कृतीयों की संज्ञा कुलक न भी हो एवं ही कुलक की पदसंख्या न्यूनाधिक प्राप्त होने से सूचित पद्य संख्या निश्चित नहीं हों । कइयों के कर्त्ताओं के नाम छूट गये हो । अतः विशेषज्ञ विद्वानों से विशेष जानकारी प्रकाशित करने का अनुरोध है । अन्यथा अन्वेषण करने पर कुलकों और मिटने की संभावना है। S कुलक साहित्य की प्राचीनता एवं विकास | अद्यावधि उपलब्ध कुलकों में संभवतः गौतम कुलक सम से प्राचीन है। रचयिता गौतम गणधर बताए जाते हैं | प्रमाणाभाव से यह कहाँ तक ठीक है कहा नहीं जा सकता। फिर भी संभवतः वह इतना प्राचीन है एवं विता भी ि होगा । हाँ, इसकी प्रसिद्धि तो सब से अधिकतर है । हमारे संग्रह में ही इसक पचीसो प्रतिमें मूल टवा एवं वृत्ति महित है। सामान्यतः निश्चित रूप से ि कुलकों के रचयिताओं का समय ज्ञात है कुलकों की रचना ११ वीं शताब्दी से क है । कर्ता के नाम रहित है जो कुलक है उनमें संभव है श्री हरिद्रसूरिजी है आसपास के हों, अतः वीं शताब्दी तक. कुटक की प्राचीनता मानी जा सकती है। पर विकास ११ वीं से हुआ । १२-१३-१४ सदी इनकी रचना का माह या एवं १७ व शाब्दिक यह परंपरा चालु रही। १८ वीं में बंद होगई होती है। भाषा की दृषि सेवा, संस्कृत, अपभ्रं पायें जाते हैं । विषय की दृष्टि से अधिकांठा कुलक जैन नत्रज्ञान, आमोपदेश के सम्बन्ध में ही रचे गये हैं । यदि कुलक पर १२ हजार शक की एवं टीकाएं मेरे कान को काफी है। प्रकाशन की आवश्यकता | जैसा कि पूर्व कहा गया है, बड़े में बहुत कहने की गंभीरता के कारण क कंठस्थ करना सुगम एवं बहुत ज्ञानवर्द है अत: उपयोगिता की दृष्टि से इनक नंदन कुलादि पर मा आन्तजार की क For Private And Personal Use Only

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