Book Title: Jain Darshnik Sahitya me Gyan aur Praman ke Samanvay ka Prashna
Author(s): Kanji Patel
Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_2_Pundit_Bechardas_Doshi_012016.pdf

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Page 5
________________ कानजी भाई पटेल परिणामस्वरूप ही उसे योग्य रूप में स्थान मिला है, ऐसा प्रतीत होता है। मूल आगमों में से भगवतीसूत्र में आगमिक पद्धति की, स्थानाङ्ग में तार्किक पद्धति के दोनों प्रकारों की, नन्दी में द्विभेदी तार्किक पद्धति की और अनुयोगद्वार में चतुर्विध तार्किक पद्धति की चर्चा है। किन्तु नन्दी और अनयोगद्वार की पद्धति को तर्कमिश्रित आगमिक ज्ञान-पद्धति कहना चाहिए। क्योंकि प्रत्यक्ष के व्यावहारिक और पारमार्थिक भेदों के प्रथम भेद में मतिज्ञान को रखकर तथा दूसरे विभाग में अवधि, मनःपर्याय एवं केवलज्ञान को और परोक्षज्ञान में स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, आगम आदि को रख कर एक शुद्ध तार्किक पद्धति का विनियोग किया जा सकता है। ज्ञान एवं प्रमाण के समन्वय का अभाव मूल आगमों में आगमिक एवं तार्किक इन दोनों पद्धतियों से समग्र ज्ञान-वृत्ति का निरूपण हुआ है, तथापि इन दो पद्धतियों का परस्पर समन्वय हुआ दिखाई नहीं देता। भद्रबाहुकृत दशवैकालिक नियुक्ति के प्रथम अध्ययन में न्याय-प्रसिद्ध परार्थ-अनुमान का वर्णन जैन दृष्टि से किया गया है । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि नियुक्तिकार के पूर्व तार्किक पद्धति जैनशास्त्र में स्थान प्राप्त कर चुकी होगी, तथापि नियुक्ति तक में इन दो पद्धतियों का समन्वय देखने को नहीं मिलता। जैन आगमिक आचार्यों ने प्रमाण-चर्चा को ज्ञान-चर्चा से भिन्न रखा है । आगमों में जहाँ ज्ञान की चर्चा आती है, वहाँ प्रमाण अप्रमाण के साथ ज्ञान का सम्बन्ध बताने का प्रयास नहीं हुआ है और जहाँ ज्ञान की चर्चा हुई है, वहाँ प्रमाण को ज्ञान कहने पर भी प्रमाण में आगम प्रसिद्ध पाँच ज्ञानों का समावेश और समन्वय कैसे हुआ, यह नहीं बताया गया अर्थात् आगमिकों ने जैनशास्त्र में प्रसिद्ध ज्ञान-चर्चा और दर्शनान्तर में प्रसिद्ध प्रमाण-चर्चा का समन्वय करने का प्रयत्न नहीं किया है। अनुयोग और नन्दी में ज्ञान एवं प्रमाण के समन्वय का अस्पष्ट सूचन ___ अनुयोगद्वार में इन दो पद्धतियों के समन्वय का सङ्केत मिलता है । नन्दीसूत्र में भी ऐसा प्रयत्न दिखाई देता है, तथापि दोनों की पद्धतियाँ भिन्न हैं। अनुयोगद्वार में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम-इन चार प्रमाणों के उल्लेख के साथ प्रथम भूमिका निश्चित की गयी है। पूर्व प्रस्तुत तालिका में प्रत्यक्ष ज्ञान-प्रमाण के दो भेद किये गये हैं, यथा-इन्द्रिय-प्रत्यक्ष एवं नोइन्द्रिय-प्रत्यक्ष । इन्द्रिय-प्रत्यक्ष में श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रियइन पाँच प्रकार के प्रत्यक्षों का समावेश हुआ है। उसी प्रकार नोइन्द्रिय-प्रत्यक्ष प्रमाण में जैनशास्त्रप्रसिद्ध तीन प्रत्यक्षों का समावेश हुआ है- अवधिज्ञान प्रत्यक्ष, मनःपर्यायज्ञान प्रत्यक्ष और केवलज्ञान प्रत्यक्ष । इस प्रकार यहाँ प्रत्यक्ष के दो विभागों में से एक विभाग में मतिज्ञान को प्रत्यक्ष मान्य रखा है और दूसरे विभाग में अवधि, मनःपर्याय और केवलज्ञान को प्रत्यक्ष कहा है। श्रुतज्ञान को आगम में रखा है। ___नन्दीसूत्र में भी अनुयोगद्वार की तरह ही समन्वय का प्रयत्न हुआ है। परन्तु उसकी पद्धति अलग है। उसमें प्रमाण के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष-ऐसे दो भेद बताये हैं । पुनः प्रत्यक्ष को दो उपविभागों में विभाजित कर, प्रथम विभाग में श्रोत्रेन्द्रिय आदि मतिज्ञान के पाँच प्रकारों को और दूसरे विभाग में अवधि आदि तीन ज्ञानों को वर्गीकृत किया है; परन्तु आगे जहाँ परोक्ष के भेदों का वर्णन हुआ है, वहाँ नन्दीकार ने श्रुतज्ञान के साथ-साथ मतिज्ञान ( आभिनिबोधिक ) का भी परोक्ष प्रमाण के रूप में वर्णन किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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