Book Title: Jain Darshnik Sahitya me Gyan aur Praman ke Samanvay ka Prashna
Author(s): Kanji Patel
Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_2_Pundit_Bechardas_Doshi_012016.pdf

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Page 1
________________ जैन दार्शनिक साहित्य में ज्ञान और प्रमाण के समन्वय का प्रश्न कानजी भाई पटेल अनुयोगद्वार-सूत्र ( सङ्कलन लगभग ५वीं शताब्दी ) के सूत्र ५ में सूत्रकार ने आवश्यक का अनुयोग प्रस्तुत करने की बात कही है। अतः ऐसा लगता है कि इस सूत्र में आवश्यक की व्याख्या होगी। परन्तु समग्र ग्रन्थ के अवलोकन से यह स्पष्ट है कि अनुयोगद्वार-सूत्र पदार्थ की व्याख्यापद्धति का निरूपण करने वाला ग्रन्थ है। नाम के अनुसार उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय इन चार द्वारों का निरूपण इसमें हुआ है । आवश्यक-सूत्र के पदों की व्याख्या इसमें नहीं हुई है। आवश्यकानुयोग के सन्दर्भ में सूत्रकार ने प्रथमतः आभिनिबोधिक आदि पाँच ज्ञान का निरूपण कर अनुयोग के लिये श्रुतज्ञान ही योग्य है, ऐसा कहकर उसका महत्त्व प्रदर्शित किया है। श्रुतज्ञान के ही उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग हो सकते हैं, जबकि शेष चार ज्ञान असंव्यवहार्य हैं । परोपदेश के लिये अयोग्य होने से इन चार के माध्यम से अनुयोग होना सम्भव नहीं है। उक्त चार ज्ञानों के स्वरूप का वर्णन भी श्रुतज्ञान द्वारा ही होता है। इस प्रकार ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही अङ्गप्रविष्ट, अङ्गबाह्य, कालिक, उत्कालिक, आवश्यक और आवश्यक-व्यतिरिक्त में आवश्यक का स्थान कहाँ है, यह बताने के लिये आभिनिबोधिक, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय और केवलज्ञान का उल्लेख किया गया है। तदनन्तर सूत्र ४६६ से ४७० तक में ज्ञान-प्रमाण के विवेचन में ज्ञान के प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम इस प्रकार चार भेद बताये हैं । ज्ञान-प्रमाण की विवेचना में अनुयोगद्वार-सूत्रकार को पाँच ज्ञानों को ही प्रमाण के भेदों के रूप में बताना चाहिये था, किन्तु ऐसा न करके सूत्रकार ने प्रथम तो नैयायिकों में प्रसिद्ध चार प्रमाणों को ही प्रमाण के भेद के रूप में बताया है। तत्पश्चात् पाँच ज्ञानों को प्रत्यक्ष और आगमइन दो प्रमाणों में समाविष्ट किया है। वस्तुतः अनुयोगद्वार-सूत्रकार का यह अभिमत रहा है कि अन्य दार्शनिक जिन प्रत्यक्षादि चार प्रमाणों को मानते हैं, वे ज्ञानात्मक हैं, आत्मा के गुण हैं। ___ अनुयोगद्वार-सूत्र में इन पाँच ज्ञानों के स्वरूपों की चर्चा नन्दी-सूत्र की भाँति प्रत्यक्ष एवं परोक्ष के रूप में विभाजन करके नहीं की गई है। वस्तुतः अनुयोगद्वार-सूत्र में ज्ञान के स्वरूप की चर्चा सबसे निराली है। आगमों में ज्ञान के स्वरूप की चर्चा के विकास की जो तीन भूमिकाएँ हैं, इनमें से एक भी अनुयोगद्वार-सूत्र में देखने को नहीं मिलती है। ज्ञान के स्वरूप की चर्चा का विकासक्रम --ज्ञान के स्वरूप की चर्चा के विकास-क्रम को आगमों के ही आधार पर देखें, तो उसकी तीन भूमिकाएँ स्पष्ट हैं, यथा१. प्रथम भूमिका वह, जिसमें ज्ञान को पाँच भेदों में विभक्त किया गया है। २. द्वितीय भूमिका में ज्ञान के प्रत्यक्ष और परोक्ष-ऐसे दो विभाग कर मति एवं श्रत को परोक्ष तथा शेष तीन-अवधि, मनःपर्याय एवं केवलज्ञान को प्रत्यक्षज्ञान के अन्तर्गत माना गया है। यहाँ अन्य दर्शनों की तरह इन्द्रियजन्य मतिज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं माना गया है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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