Book Title: Jain Darshnik Sahitya me Gyan aur Praman ke Samanvay ka Prashna Author(s): Kanji Patel Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_2_Pundit_Bechardas_Doshi_012016.pdf View full book textPage 4
________________ जैन दार्शनिक साहित्य में ज्ञान और प्रमाण के समन्वय का प्रश्न जीव के गुण १ज्ञान २ दर्शन ३ चारित्र २ अनुमान १ प्रत्यक्ष २ अनुमान ३उपमान ४आगम १ इन्द्रिय प्रत्यक्ष २ नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष १पूर्ववत् २शेषवत् ३दृष्टसा-लौकिक २ लोकोत्तर १ श्रोत्रेन्द्रिय प्र० १ अवधिज्ञान प्र० (वेद, रामायण) (आचाराङ्ग २ चक्षरिन्द्रिय प्र. २ मनःपर्यायज्ञान प्र० महाभारतादि आदि १२ अङ्ग) ३ घ्राणेन्द्रिय प्र० ३ केवलज्ञान प्र० Fqw0 जिह्वेन्द्रिय ० ५ आश्रयेण । . ५ स्पर्शेन्द्रिय प्र० १साधोपनीत २ वैधोपनीत १ कार्येण २कारणेन ३ गुणेन ४ अव्ययेन ५ आश्रयेण | १ किञ्चिसाधो - १ किश्चिद्वैधर्म्य १ सामान्यदृष्ट २ विशेषदृष्ट २ प्रायःसाधोपनीत २ प्रायःवैधयं ३ सर्वसाधोपनीत ३ सर्ववैधयं पनातोपनीत २ प्राय १ अतीतकालग्रहण २ प्रत्युत्पन्नकालग्रहण ३ अनागतकालग्रहण ज्ञान-चर्चा को आगमिक और ताकिक पद्धतियाँ-ज्ञान-चर्चा की उपर्युक्त तीन भूमिकाओं में से पहली आगमिक और अन्य दो तार्किक पद्धतियाँ हैं । ज्ञान के मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय तथा केवलज्ञान-ऐसे पाँच भेद करने की पद्धति को दो कारणों से आगमिक कहा गया है, यथा१. इसमें किसी भी जैनेतर दर्शन में प्रयुक्त नहीं हुए ऐसे पाँच ज्ञानों का निरूपण हुआ है। २. जैनश्रुत में कर्मप्रकृतियों का जो वर्गीकरण है, उसमें ज्ञानावरणीय कर्म के विभाग के रूप में मतिज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय और केवलज्ञानावरणीय-ऐसे शब्दों का प्रयोग हुआ है। प्रत्यक्षावरण, परोक्षावरण, अनुमानावरण, उपमानावरण, आगमावरण आदि शब्दों का प्रयोग देखने को नहीं मिलता। ज्ञान प्रमाण के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष-ये दो भेद तथा प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम आदि चार भेद करने की पद्धति को तार्किक पद्धति कहने के पीछे भी दो कारण हैं१. उसमें प्रायोजित प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान आदि शब्द न्याय, बौद्ध आदि जैनेतर दर्शनों में भी प्रचलित हैं। २. प्रत्यक्ष, परोक्ष इत्यादि रूप में ज्ञान-वृत्ति का पृथक्करण करने में तर्कदृष्टि प्रधान है। मूल आगमों से लेकर उपाध्याय यशोविजयजी के ग्रन्थों तक ज्ञान-निरूपण-विषयक समग्र श्वेताम्बर, दिगम्बर वाङ्मय में आगमिक एवं तार्किक दोनों पद्धतियों को स्वीकार किया गया है। इन दोनों में आगमिक पद्धति अति प्राचीन लगती है, यद्यपि दूसरी तार्किक पद्धति भी जैन वाङ्मय में प्राचीन काल से अस्तित्व में है। परन्तु दार्शनिक सङ्घर्ष तथा तर्कशास्त्र के परिशीलन के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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