Book Title: Jain Darshan me Tattva Vivechna Author(s): Rameshmuni Publisher: Z_Lekhendrashekharvijayji_Abhinandan_Granth_012037.pdf View full book textPage 2
________________ परिज्ञान होना अति अपेक्षित है। अतएवं साधक को आत्मा की शुद्ध और अशुद्ध अवस्था के कारणों का परिबोध होना अत्याधिक आवश्यक है। वे कारण जो कि साधना के प्रमुख हेतु है, तत्व कहे जाते है। तत्व का लक्षण परिज्ञात होने पर यह प्रश्न होता है कि तत्व किसे कहते है उन की संख्या कितनी है ? उक्त प्रश्न का उत्तर आध्यात्मिक और दार्शनिक इन दोनों दृष्टियों से दिया गया है। प्रथम शैली के अनुसार तत्व दों है, वे इस प्रकार है। १. जीव तत्व ! २. अजीव तत्व ! द्वितीय शैली के अनुसार तत्व सात है उन के नाम इस प्रकार है। १ जीव तत्व २ अजीव तत्व ३ आश्रव तत्व मोक्षतत्व तृतीय शैली के अनुसार तत्व की संख्या नौ है उन के नाम इस प्रकार है। १ जीव तत्व ! ५ आश्रव तत्व ! २ अजीव तत्व ! ४ बन्ध तत्व ५ संवर तत्वा ६ निर्जरा तत्व ६ बन्ध तत्व ! ७ संवर तत्व ! ८ निर्जरा तत्व ! ९ मोक्ष तत्व पुण्य और पाप इन दो तत्वों को आश्रव और बन्ध इन दो तत्वों में से आश्रव या बन्ध में समावेश कर लेने पर सात तत्व कहलाते है। पुण्य पाप को आश्रव और बन्ध से अलग कर के कहने से नौ तत्व कहलाते है। इस दृष्टि से तत्व की संख्या नौ बतलाई गयी है। उक्त सात या नव तत्वों में से जीव और अजीव ये दो तत्व तो धर्मी है। अर्थात आश्रव आदि अन्य तत्वों के आधार है और अवशेष आश्रव आदि उन के धर्म हैं। दूसरे रुप में इन का वर्गीकरण करते हैं तो जीव और अजीव ज्ञेय हैं जानने योग्य हैं संवर, निर्जरा और मोक्ष ये तीन तत्व उपादेय ग्रहण करने योग्य हैं। शेष आश्रव, बन्ध, पुण्य और पाप ये चार तत्व हे अर्थात् त्याग करने योग्य हैं। उक्त नव तत्वों का संक्षेप में स्वरुप इस प्रकार हैं। १ - जीव तत्व जो द्रव्य प्राणों और भावप्राणों से जीता है। वह जीव है। जीव उपयोगमय वह संसारस्थ है। कर्म है कर्ता है, भोका है, अमूर्त है। स्व और स्वदेह परिमाण है मुक्त जीव सिद्ध है जीव स्वभाव तः ६ उर्ध्वगामी है उपयोग यह जीव का लक्षण है। पदार्थ के स्वरुप को जानने के लिये जीव की जो शक्ति प्रवृत्ति होती है उसे "उपयोग" कहते है। उपयोग के दो भेद है- ज्ञान उपयोग और दर्शन उपयोग! जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक पदार्थ सामान्य विशेषात्मक है प्रत्येक वस्तु सामान्य और विशेष ये दो धर्म पाये जाते है उपयोग जीव का असाधारण, धर्म है! जीव अविनाशी है, ७ अवस्थित है। जीवतत्व ४. तत्वार्थ सूत्र - अध्ययन १ सूत्र ४, ५. क स्थानांग सूत्र स्थान ९ सूत्र - ६६५. ख- उत्तराध्यदन सूत्र अध्ययन २८ गाथा - १४, ६. क स्थानांग सूत्र - ५ / ३ / ५३. ख-भगवती सूत्र - १३/४/४८. ग- उत्तराध्ययेन सूत्र २८१० य तत्त्वार्थसूत्र २/८, ७ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र- १/५. २५४ Jain Education International ३ पुण्य तत्व ! ४ पाप तत्व ! विद्या और शक्ति का सही उपयोग करने से ही संसार मार्ग कल्याण एवं मंगलकारक होता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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