Book Title: Jain Darshan me Tattva Vivechna Author(s): Rameshmuni Publisher: Z_Lekhendrashekharvijayji_Abhinandan_Granth_012037.pdf View full book textPage 8
________________ झाड देना, पृथक् कर देना "निर्जरा" तत्त्व है। इस का आत्म-शुद्धि की दृष्टिसे अत्याधिक महत्त्व रहा है। 8 - बन्ध तत्त्व - आत्मा के साथ क्षीर - नीर की भांति कौका मिल जाना बन्ध है। बन्ध एक वस्तु का नहीं होता, दो वस्तुओं का सम्बन्ध होता है, उसे बन्ध कहते हैं। काषायिक - परिणामों से कर्म के योग्य पुद्गलों का आत्मा के साथ सम्बन्ध होना बन्ध कहलाता है। जीव अपने काषायिक-परिणामों से अनन्त-अनन्त कर्म योग्य पुद्गलों का बन्ध करता रहता है। आत्मा और कमों का यह बन्ध दूध और पानी, अग्नि और लोह पिण्ड जैसा है। बन्ध तत्त्व के चार भेद हैं।२१ वे ये हैं - 1- प्रकृति बन्ध! 3 - अनुभाग बन्ध! . 2 - स्थिति बन्ध! 4 - प्रदेश बन्ध! बन्ध के शुभ और अशुभ ऐसे दो प्रकार हैं। प्रकृति बन्ध के आठ भेद हैं। १-ज्ञानावरण! 5 - आयुष्य। 2 - दर्शनावरण! 6- नाम! 3 - वेदनीय! 7- गोत्र! 4 - मोहनीय! 8- अन्तराय! जीव जब तक कर्म-जाल से बद्ध है तब तक वह संसार - कानन में भ्रमण करता है। 9 - मोक्षतत्त्व - नवतत्त्व में अन्तिम-तत्त्व "मोक्ष" है। मोक्ष ही जीव मात्रका चरम और परम लक्ष्य है। मोक्ष की परिभाषा इस प्रकार है - 23 समस्त कर्मों से मुक्ति और राग-द्वेष का सम्पूर्ण क्षय। बन्ध के कारणों और संचित कर्मों का क्षय हो जाना मोक्ष है। मोक्ष प्राप्ति के लिये सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र की अनिवार्य आवश्यकता है। ये मोक्ष मार्ग है। तत्त्व के यथार्थ विवेक की अभिरुचि यही सम्यग्दर्शन हैं।२४ "जिन" की वाणी में, जिन के उपदेश में जिस को दृढ निष्ठा है, वही सम्यग्दृष्टि है।२५ नय और प्रमाण से होने वाला जीव आदि तत्वोंका यथार्थ बोध सम्यग्ज्ञान है। सम्यग्ज्ञानपूर्वक काषायिक भाव की निवृत्ति हो कर जो स्वरूप -रमण होता है। वही सम्यक्-चारित्र है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र ये तीनों साधन जब परिपूर्ण रूप में प्राप्त होते हैं। तभी सम्पूर्ण मोक्ष संभव है। अन्यथा नहीं। एक भी साधन जब तक अपूर्ण रहेगा! तब तक मोक्ष - प्राप्त नहीं हो सकता हैं। सारपूर्ण भाषा में यही कहा जा सकता है कि नवतत्त्व की जो तात्त्विक व्यवस्था है, वह यथार्थ अर्थ में मोक्षमार्ग परक है। और वह विशिष्ट व्यवस्ता आत्मा को कर्म बन्धन से उन्मुक्त होने का पुरुषार्थ करने और मोक्ष -प्राप्त करने के लिये विशेषत: प्रेरित करती है इसी में तत्त्वज्ञान की सार्थकता है, और यही तत्त्व-विचारणा है। 21. क-प्रकृतिस्थित्यनु भाग प्रदेशास्तद्विधय: तत्त्वार्थ सूत्र 8/4. ख-प्रकृतिस्थित्यनुभागभेदाच चतुर्थ. षट्दर्शनसमुच्चय पृ. 277. 22 - ज्ञानावरण दर्शनावरण वेदनीय मोहनीया यु नाम गोमान्तराय रूपम् ! यशो विजय कृत टीका - कर्मप्रकृतिगा -123 - कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः / तत्त्वार्थ सूत्र अध्ययन 10 सू 3 24 क -स्थानांगसूत्र स्थान - 9! ख - उत्तराध्ययन सूत्र 28/15!, ग - तत्त्वार्थ सूत्र अ-१ सू-२! 25 - तमेव सच्चं नीसंकं, जं जिणेहिं पवेइयं आचारांग सूत्र 5, 163 ! 260 जिस दिन मानव अहंकार त्याग, सद्ज्ञान का पुजारी बन जाता है बस उस दिन से वह स्व और पर काउद्वारक हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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