Book Title: Jain Darshan me Tattva Vivechna
Author(s): Rameshmuni
Publisher: Z_Lekhendrashekharvijayji_Abhinandan_Granth_012037.pdf

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Page 1
________________ जैन दर्शन में तत्व-विवेचना लेखक :- रमेश मुनि शास्त्री जैन दर्शन में तत्व का आधारभूत और महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। जीवन का तत्व से और तत्व का जीवन से परस्पर एवं प्रगाढ सम्बन्ध रहा है। तत्व लोक सापेक्ष भी है और उस का परलौकिक क्षेत्र में भी विशेष रुप से महत्त्व है। दार्शनिक चिन्तन एवं वैज्ञानिक विचारणा का मूलभूत केन्द्र-बिन्दु तत्व शब्द द्वारा अभिधेय कोई न कोई वस्तु है। यह एक सत्य और तथ्य है। तत्व एक शब्द है। प्रत्येक शब्द का प्रयोग निष्प्रयोजन नहीं होता है। उस का कुछ न कुछ अर्थ होता है। यह अर्थ वस्तु में विद्यमान किसी गुणधर्ग या किसी न किसी क्रिया का परिज्ञान अवश्य कराता है। इसलिये शब्दशास्त्र की दृष्टि से "तत्व" शब्द का अर्थ है-जो पदार्थ जिस रुप में विद्यमान है, उस का उस रुप में होना, यही उक्त शब्द का अर्थ है। शब्दशास्त्र के-अनुसार प्रत्येक सद्भुत वस्तु को "तत्व" शब्द से सम्बोधित किया जाता है। इसी सन्दर्भ में यह ज्ञातव्य है कि लौकिक दृष्टि से तत्व शब्द के अर्थ है- वास्तविक स्थिति, यथार्थता, साखस्तु सारांश! और सारांश! दार्शनिक दृष्टि से तत्व शब्द के अर्थ है परमार्थ द्रव्य स्वभाव, पर-अपर शुद्ध परम ये शब्द तत्व के पयार्यवाची है। "तत्" शब्द से भाव अर्थ में "त्व" प्रत्यय लग कर तत्व शब्द निष्पन्न हुआ है। जिस का स्पष्टत: अर्थ उस का भाव! वस्तु के स्वरुप को तत्व कहा गया है। "तत्" सर्वनाम शब्द है, जो अवश्य ही किसी संज्ञा अर्थात् वस्तु की ओर इंगित करते है। उस वस्तु का ही तत्व में महत्त्व है। जो पदार्थ अथवा वस्तु अपने जिस रुप में है, उस का उस रूप में होना ही तत्व है। प्रत्येक पदार्थ, जो है अर्थात जिस का अस्तित्व स्वीकार्य है। वह तत्व के अन्तर्गत परिगणित हो जाती है। किन्तु दर्शन में इन में से कतिपय को ही अपने अर्थ में तत्व रुप में स्वीकार किया गया है। दार्शनिक दृष्टि से तत्व की व्याख्या और भी अधिक सूक्ष्म है, वह इस प्रकार है-तत्व का लक्षण सत् है अथवा सत्र ही तत्व है। अतएवं वे स्वभाव से सिद्ध है। जगत में जो है वह तत्व है और जो नहीं है। वह तत्व नहीं है, इतना स्वीकार कर लेना प्रत्येक अवस्था में सर्वथा निरापद एवं यथार्थ सन्निक्त है। होना तत्व है और नहीं होना तत्व नहीं है। तत् का लक्षण "सत" है। सत् का विनाश नहीं होता है। और सत् स्वयं सिद्ध है उस का आदि भी नहीं है, मध्य भी नहीं और अन्त भी नही है वह भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्य काल इन तीनों में स्थित रहता है। जैन दर्शन में सत् तत्व, तत्वार्थ, अर्थ पदार्थ, और द्रव इन शब्दों का एक ही अर्थ में प्रयोग किया गया है। जो सत् है, वही द्रव्य है और जो द्रव्य है. वही सतः है। स्वरुप की प्राप्ति ही जीवमात्र का एकमात्र लक्ष्य है। एकमात्र साध्य है। इसलिये स्वरुप की साधना दृष्टि से सर्वप्रथम चैतन्य और जड़ का भेद विज्ञान नितान्त आवश्यक है। इस के साथ ही चैतन्य और जड़के संयोग-वियोग का १. बृहनय चक्र-४, २. पंचाध्यायी पूर्वार्दू श्लोक-८, ३. भगवती सूत्र-८, ९. प्रभू के दरबार में यकिंचन यालुओं का पूर्व स्वागत सत्कार होता है। २५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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