Book Title: Jain Darshan me Nayavada
Author(s): Bansidhar Pandit
Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf

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Page 3
________________ २२ : सरस्वतीवरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ पाँच भेद ही सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शनकी अपेक्षासे क्रमशः प्रमाणरूप और अप्रमाणरूप होकर ज्ञानकी आठ भेदरूपताको प्राप्त हो जाते है। जिस ज्ञानमें मोहकी प्रेरणा कार्यकर रही हो या जो ज्ञान मोहके आधारपर उत्पन्न राग तथा द्वेषकी संपूर्तिके लिये हो उसे तो मिथ्यादर्शन (अविवेक) की स्थितिमें होनेवाला अप्रमाण ज्ञान. जानना चाहिये और जिस ज्ञानमें मोह की प्रेरणा कार्य न कर रही हो या जो ज्ञान मोहके आधारपर उत्पन्न राग तथा द्वेषकी संपूतिके लिये न हो उसे सम्यग्दर्शन (विवेक) की स्थितिमें उत्पन्न हुआ प्रमाण ज्ञान जानना चाहिये । यहाँपर अभिलषित आवश्यक अथवा अनावश्यक परपदार्थों की प्राप्तिमें और अनभिलषित परपदार्थोके वियोगमें हर्ष करना राग है तथा अनभिलषित परपदार्थों की प्राप्तिमें और अभिलषित आवश्यक अथवा अनावश्यक परपदार्थों के वियोगमें विषाद करना द्वेष है एवं परपदार्थोंमें अहंद्धि या ममबुद्धि करना मोह है। इसी प्रकार परपदार्थों में इष्टबुद्धि या अनिष्टबुद्धि करना मोह है व इस तरह इष्टरूपसे स्वीकृत परपदार्थके प्रति आकृष्ट होकर उसमें प्रीति करने लग जाना राग है तथा अनिष्टरूपसे स्वीकृत परपदार्थके प्रति घृणा व ग्लानिरूप अप्रीति करने लग जाना द्वेष है-ऐसा जानना चाहिये। जैनागममें बतलाया है कि ज्ञानके उल्लिखित पाँच भेदोंमेंसे अन्तके अवधि, मनःपर्यय और केवल ये तीन भेद तो जीवमें पररूप साधनोंकी सहायताके बिना केवल आत्मनिर्भरताके आधारपर ही उत्पन्न होते हैं, लेकिन मतिज्ञान और श्रुतज्ञानको उत्पत्तिमें आत्मबलकी आवश्यकता होनेपर भी दोनोंमेंसे मतिज्ञान तो पररूप स्पर्शन, रसना, नासिका, नेत्र और कर्ण इन पाँच इन्द्रियों तथा मन हृदय)की यथावश्यक सहायतासे उत्पन्न होता है व श्रुतज्ञान पररूप मन (मस्तिष्क)की सहायतासे उत्पन्न होता है । इतना बतलानेमें हमारा प्रयोजन यह है कि जब मतिज्ञानका उल्लिखित पाँच इन्द्रियों और मनकी सहायतासे व श्रुतज्ञानका मनकी सहायतासे उत्पन्न होनेका नियम है और चंकि पाँचों इन्द्रियों व मनका सदोष अथवा निर्दोष होना भी सम्भव है तो इसके आधारपर जैनदर्शनकी यह भी मान्यता है कि जिस जीवकी इन्द्रियाँ व मन सदोष हालतमे हों उस जीवमें उनकी सहायतासे उत्पन्न हुआ मतिज्ञान तथा जिस जीवका मन सदोष हालतमें हो उस जीवमें उसको सहायतासे उत्पन्न हुआ श्रतज्ञान दोनों ही अप्रमाणरूप होते हैं। इसी प्रकार जिस जीवकी इन्द्रियाँ व मन निर्दोष हालतमें हों उस जीवमें उनकी सहायतासे उत्पन्न हुआ मतिज्ञान तथा जिस जीवका मन निर्दोष हालतमें हो उस जीवमें उसकी सहायतासे उत्पन्न हुआ श्रुतज्ञान दोनों ही प्रमाणरूप होते हैं। कानोंमें बहरापन आ जाना, आँखोंपर पीलिया रोगका प्रभाव हो जाना या मोतियाविन्दु आदिके कारण दृष्टिका कमजोर हो जाना, नाकमें भी सर्दी-जुकामका हो जाना आदि यथायोग्य निमित्तोंसे इन्द्रियाँ सदोष हो जाती है व जीवमें क्रोधादिकषाय उत्पन्न होनेपर मन सदोष हो जाया करता है। इसी तरह मद्य आदि मादक पदार्थोंका सेवन आदि कारणोंसे भो मन सदोष हो जाया करता है। -समयसारटीका, १. 'यः प्रीतिरू पो रागः""""योऽपीतिरूपो द्वषः......"यस्तत्त्वाप्रतिपत्तिरूपो मोहः ।' __ अमृतचन्द्र , गा० ५०-५५ ।। २. सर्वार्थसिद्धि में 'प्रत्यक्षमन्यत् ।' -१-१२ सूत्रकी व्याख्या । ३. 'तदिन्द्रियानिन्द्रियानमित्तम् ।' -तत्त्वार्थसूत्र १-१४ । ४. 'श्रुतमतिन्द्रियस्य ।' वही, २-११ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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