Book Title: Jain Darshan me Nayavada Author(s): Bansidhar Pandit Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf View full book textPage 2
________________ ४ / दर्शन और न्याय २१ जिन ज्ञानोंमें उक्त सामर्थ्य नहीं पायी जाती है उन ज्ञानोंको अप्रमाण ज्ञान जानना चाहिये । जैनदर्शन में अप्रप्रमाणका माणाभासनामसे उल्लेख करते हुए उसके जो भेद गिनाये गये हैं उनमें ज्ञानविशेषों का भी समावेश किया गया है । यथा 'अस्वसंविदितगृहीतार्थ दर्शन संशयादयः प्रमाणाभासाः । - परीक्षामुख ६-२ अर्थात् जो अपना संवेदन करनेमें असमर्थ हो या जो गृहीत अर्थको ग्रहण करनेवाला हो या जो निराकार दर्शनरूप हो और या जो संशय, विपर्यय अथवा अनध्यवसाय स्वरूप हो वे सभी अपने-अपने ढंग से प्रमाणाभास हैं । ज्ञानके भेद और उनका प्रमाण तथा अप्रमाणरूपमें विभाजन 3 तत्त्वार्थसूत्रमें ज्ञानके पांच भेद गिनाये गये हैं- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान' । तथा इन पाँचों ज्ञानोंको प्रमाण कहा गया है और आदिके मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान इन तीन ज्ञानोंको प्रमाण के साथ-साथ अप्रमाण भी बतलाया गया है। इस प्रकार पाँच प्रमाणरूप और तीन अप्रमाण रूप कुल मिलाकर ज्ञानके आठ भेद कर दिये गये हैं । ज्ञानोंकी प्रमाणता और अप्रमाणताका कारण स्वामी समन्तभद्रने रत्नकरण्डकत्रावकाचार में मोहकर्मका अभाव होनेपर उत्पन्न होनेवाले सम्यग्दर्शनको ज्ञानकी प्रमाणताका कारण बतलाया है और आचार्य पूज्यपादने "मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च " ( १-३१ ) सूत्रकी व्याख्या करते हुए ज्ञानकी अप्रमाणताका कारण मोहकर्मके उदयमें उत्पन्न होनेवाले मिथ्यादर्शनको बतलाया है। इस तरह ऐसा समझना चाहिये कि मोहकर्मके उदयका अभाव होनेपर उत्पन्न सम्यग्दर्शनकी स्थिति जीवको जो पदार्थज्ञान होता है वह प्रमाणज्ञान कहलाता है और मोहकर्मके उदयमें उत्पन्न मिथ्यादर्शन की स्थिति में जीवको जो पदार्थज्ञान होता है वह अप्रमाण ज्ञान कहलाता है । इस विषय में हम इतना और स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि जनदर्शन की मान्यताके अनुसार उपर्युक्त पाँच सामान्य ज्ञानोंमेंसे मनः पर्वयज्ञान और केवलज्ञान दोनों मोहकमंके उदयका अभाव होनेपर उत्पन्न सम्यग्दर्शनकी स्थिति में ही हुआ करते हैं । इतना ही नहीं, मन:पर्ययज्ञान तो सम्यग्दर्शनके साथ-साथ जीवमें सकलचारित्रकी उत्पत्ति हो जानेपर तथा केवलज्ञान सकलसंयमसे भी आगे यथास्यातचारित्रकी उत्पत्ति हो जानेपर ही हुआ करता है। इसलिये मन:पर्यय और केवल ये दोनों ज्ञान सतत प्रमाणरूप ही रहा करते हैं। परन्तु मतिज्ञान, धुतज्ञान और अवधिज्ञान जीवमें चूंकि मोहकर्मके उदयका अभाव होनेपर उत्पन्न सम्यग्दर्शनकी स्थिति में भी होते हैं व मोहकर्मके उदयमें उत्पन्न मिथ्यादर्शनकी स्थितिमें भी होते हैं । अतः ये तीनों ज्ञान सम्यग्दशनकी स्थिति होनेके आधारपर तो प्रमाणरूप व मिथ्यादर्शनकी स्थितिमें होनेके आधारपर अप्रमाणरूप इस तरह दोनों प्रकारके हुआ करते हैं। इससे यह बात भी फलित होती है कि ज्ञान सामान्यके ऊपर बतलाये गये १. मतिश्रुतावधिमनः पर्ययकेवलानि ज्ञानम् । - तत्त्वा० १-९ । २. वही, १-१० । ३. वही, १-३१ । ४. द्रव्य संग्रह गा० ५ । ५. "मोहतिमरापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञानः । पद्म ४० का पूर्वार्ध ६. कुतः पुनरेतेषां विपर्ययः ? मिथ्यादर्शनेन सहैकार्थसमवायात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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