Book Title: Jain Darshan me Nayavada
Author(s): Bansidhar Pandit
Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf

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Page 16
________________ ४ / दर्शन और न्याय : ३५ अस्तित्वको प्राप्त हो रही है । आचार्य श्री कुन्दकुन्दने प्रवचनसारके ज्ञेयाधिकारकी गाथा - संख्या १ के द्वारा वही बात बतलायी है । यथा- 'अत्थो खलु दव्वमयो दव्वाणि गुणप्पगाणि भणिदाणि । तेहि पुणो पज्जाया--' अर्थात् अर्थ यानी पदार्थ ( वस्तु ) द्रव्यरूपताको लिए हुए हैं, द्रव्य गुणात्मक होता है और द्रव्य तथा गुण दोनोंमें पर्यायरूपता भी पायी जाती है । तात्पर्य वह है कि प्रत्येक वस्तुकी अपनी-अपनी पृथक्-पृथक् आकृति प्रदेशरचना ) उपलब्ध होती है, यही उसकी द्रव्यरूपता है । इसी तरह प्रत्येक वस्तुकी अपनी-अपनी उक्त प्रकारकी द्रव्यरूपताके आधारपर अपनी पृथक्-पृथक् प्रकृति (स्वभावशक्ति) हुआ करती है - यही उसकी गुणरूपता है और इसी तरह प्रत्येक वस्तुकी अपनी-अपनी उक्त प्रकारको द्रव्यरूपता और गुणरूपताके अनुरूप अपनी-अपनी पृथक्-पृथक् विकृति अर्थात् परिणति भी देखी जाती है । यह उसकी पर्यायरूपता है । प्रत्येक वस्तुकी अपनी-अपनी उक्त आकृति - रूप द्रव्यरूपता और प्रकृतिरूप गुणरूपता दोनों ही शाश्वत ( स्थायी ) हैं तथा विकृतिरूप पर्यायरूपता समय, आवली, मुहूर्त, घड़ी, दिन, सप्ताह, पक्ष, मास, वर्ष आदिके रूपमें विभक्त होकर अशाश्वत ( अस्थायी ) हैं । जैनदर्शनमें इन्हीं तीन बातोंके आधारपर प्रत्येक वस्तुको उत्पाद, व्यय और धौव्यवाली ' माना गया है। अर्थात् प्रत्येक वस्तु द्रव्यपर्यायों और गुणपर्यायोंके रूपमें उत्पाद तथा व्यय एवं द्रव्यत्व तथा गुणत्वके रूपमें ध्रौव्यका सद्भाव जैनदर्शनद्वारा स्वीकार किया गया है । प्रत्येक वस्तुकी उक्त प्रकारकी द्रव्यरूपता और पर्यायरूपता प्रतिनियत है । अर्थात् एक वस्तुकी जो आकृति, प्रकृति और विकृति है वह कदापि दूसरी वस्तुकी नहीं हो सकती है । अतः इस स्थितिके आधारपर ही जैनदर्शन में यह सिद्धान्त मान्य किया गया है कि 'जो ही वह है वही वह नहीं है।' इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि एक वस्तु कभी दूसरी वस्तु नहीं बन सकती है । यानी जीव पुद्गल आदि अन्य वस्तु नहीं बन सकता है, वह हमेशा जीव ही रहता है और यहाँतक कि एक जीव कभी दूसरे जीवरूप भी परिणत नहीं हो सकता है । इस सिद्धान्तके अनुसार ही विश्वमें विद्यमान वस्तुओंकी नियत परिमाण में अनन्तानन्त संख्या निश्चित की गयी है । ऊपर किये गये कथनके आधारपर प्रत्येक वस्तुके निम्न प्रकारसे तीन विकल्प-युगलोंके रूपमें अंश-भेद निर्धारित होते हैं - (१) एक द्रव्य उसके गुणोंके रूपमें, (२) द्रव्य और उसकी पर्यायोंके रूपमें और (३) गुण और उसकी पर्यायोंके रूपमें । इन सभी विकल्प - युगलोंपर जब ध्यान दिया जाता है तो समझ में आ जाता है। १. उत्पादव्ययत्रौव्ययुक्तं सत् । - तत्वार्थ सूत्र ५-३० । २. णवि परिणमइ ण गिह्वइ उप्पज्जइ ण परदव्वपज्जाए । ाणी जाणतो विहु पुग्गलकम्णं अणेयविहं ॥६६॥ समयसारकी इस गाथाको आदि देकर ७७, ७८ और ७९ संख्यांक गाथाओंमें आचार्य श्री कुन्दकुन्दने जो भी विवेचन किया है वह 'जो ही वह है वही वह नहीं है' इस सिद्धान्तके आधारपर ही किया है । ३. ततः सर्वत्रापि धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवद्रव्यात्मनि लोके ये थावन्तः केचनाप्यर्थास्ते सर्व एव स्वकीयद्रव्यान्तर्मग्नानन्तस्वधर्मचक्रचुंबिनोपि परस्परमचुम्बिनोऽत्यन्तप्रत्यासत्तावपि नित्यमेव स्वरूपादपतंतः पररूपेणापरिणमनादविनष्टानन्तव् यक्तित्वाकोत्कीर्णा इव तिष्ठन्तः ।' आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा समयसार गाथा २ पर किया गया यह व्याख्यान इसी मान्यतापर आधारित है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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