Book Title: Jain Darshan me Naitikta ki Sapekshata aur Nirpekshata Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_2_001685.pdf View full book textPage 2
________________ 124 : श्रमण/ अप्रैल-जून/1995 सामान्य क्षुधाओं की पूर्ति भी, जिन्हें साधारणतः मैतिक और ऐन्द्रिक कहा जाता है, आदर्श हों।"4 इन सभी के विपरीत काट नैतिक नियमों में किसी भी अपवाद को स्थान नहीं देते हैं। उनके बारे में यह घटना प्रसिद्ध है कि एक बार कांट के लिए किसी जहाज से फलों का पार्सल आ रहा था। रास्ते में जहाज विपत्ति में फंस गया और यात्री भूखों मरने लगे। ऐसी स्थिति में कांट का फलों का पार्सल भी खोल लिया गया। जब कांट के पास खुला हुआ पार्सल पहुँचा, तो कांट ने पार्सल का खोला जाना सर्वथा अनैतिक ठहराया। कांट बताते है कि नैतिक कभी अनैतिक नहीं बनता और अनैतिक कभी नैतिक नहीं बनता। देश और परिस्थितियाँ अनैतिक को नैतिक नहीं बना सकती। दूसरे स्पेन्सर आदि कुछ अन्य विकासवादी विचारक एवं समाजशास्त्रीय विचारक भी नैतिक कर्मों की नैतिकता को सापेक्ष मानते हैं। स्पेन्सर यद्यपि नैतिकता को तथ्य स्वीकार करते हैं फिर भी वे उससे सन्तुष्ट नहीं होते हैं और निरपेक्ष नीति की कल्पना कर डालते हैं। पश्चिम की तरह भारत में भी नैतिकता के सापेक्ष और निरपेक्ष पक्षों पर काफी विचारणाएँ हुई हैं। नैतिक कर्मों की अपवादात्मकता और निरापवादिता की चर्चा के स्वर स्मृति- ग्रन्थों और पौराणिक साहित्य में काफी जोरों से सुनाई देते हैं। जहाँ तक जैनविचार में नैतिकता के सापेक्ष और निरपेक्ष की मान्यता का प्रश्न है उसे एकांतिक रूप से न तो सापेक्ष कहा जा सकता है, न निरपेक्ष। यदि उसे सापेक्ष कहने का आग्रह ही रखा जाये तो वह इसीलिये सापेक्ष है क्योंकि वह निरपेक्ष भी है। निरपेक्ष के अभाव में सापेक्ष भी सच्चा सापेक्ष नहीं है। वह निरपेक्ष इसलिये है क्योंकि वह सापेक्षता से ऊपर भी है। आइये जरा इस प्रश्न पर गहरा विचार करें कि जैन नैतिकता किस अर्थ में सापेक्ष है और किस अर्थ में निरपेक्ष है। जैन नैतिकता का सापेक्ष जैन तत्त्वज्ञान जिस अनेकांतवाद के सिद्धान्त को स्वीकार करके चलता है उसके अनुसार सारा ज्ञान सापेक्ष ही होगा चाहे वह कितना ही विस्तृत क्यों नहीं हो। यदि हम अपूर्ण है तो वस्तु के अनन्त पक्षों को नहीं जान सकते, अतः जो कुछ भी जानेंगे वह अपूर्ण होगा, सापेक्ष होगा। यदि ज्ञान ही सापेक्ष रूप में होगा तो हमारे नैतिक निर्णय जिन्हें हम प्राप्त ज्ञान के आधार पर करते हैं, सापेक्ष ही होंगे इस प्रकार अनेकान्तवाद की धारणा से नैतिक निर्णयों की सापेक्षता होती है। गीता भी स्वीकार करती है कि "किं कर्तव्य" का निश्चय कर पाना अथवा कर्म की शुभाशुभता का निरपेक्ष रूप से निश्चय कर पाना अत्यन्त कठिन है।' आचरण के जिन तथ्यों को हम शुभ या अशुभ अथवा पुण्य या पाप के नाम से सम्बोधित करते हैं, उनके सन्दर्भ में साधारण व्यक्ति द्वरा दिए गए यह निर्णय सापेक्षिक ही हो सकते हैं। हमारे निर्णयों के देने से कम से कम कर्ता के प्रयोजन एवं कर्म के परिणाम के पक्ष तो उपस्थित होते ही है। दूसरे व्यक्ति के आचार के बारे में लिए जाने वाले निर्णयों में हम प्रयोजन सापेक्ष होते है। कोई भी व्यक्ति पूर्णतया न तो यह जान सकता है कि कर्ता का प्रयोजन क्या था, न स्वयं के कर्मों का दूसरों पर क्या परिणाम हुआ, इसका पूरा ज्ञान रख सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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