Book Title: Jain Darshan me Naitikta ki Sapekshata aur Nirpekshata
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_2_001685.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ जैनदर्शन में नैतिकता की सापेक्षता और निरपेक्षता : 129 निर्धारण करने में असफल हो जाती है, उसमें नैतिकता मात्र साध्य बनकर रह जाती है। नैतिकता की निरपेक्षवादी धारणा नैतिक जीवन के प्रयोजन या लक्ष्य और दूसरे शब्दों में कर्म के पीछे रहे हुए कर्ता के अभिप्राय को ही सब कुछ मान लेती है। वे मात्र आदर्श की ओर ही देखती है लेकिन साधक की देशकालगत अवस्थाओं पर विचार नहीं करती है। नैतिक जीवन के आदर्श इस प्रकार प्रस्तुत किये जाने चाहिए कि उसमें निम्न से निम्नतर चरित्र वाले से लगाकर उच्चतम नैतिक विकास वाले प्राणियों के समाहित होने की संभावना बनी रहे। जैन नैतिकता अपने नैतिक आदर्श को इतने ही लचीले स्प में प्रस्तुत करती है, जिसमें पापी से पापी आत्मा भी क्रमिक विकास करता हुआ नैतिक साधना के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच जाता रे। सापेक्षवादी और निरपेक्षवादी दोनों ही विचारणाएँ अपने एकांतिक रूप में अपूर्ण है। एक उस भूमि पर तो देखती है, जहाँ साधक खड़ा है, लेकिन उससे आगे नहीं। दूसरी उस आदर्श की ओर ही देखती है, जो सुदूर ऊंचाइयों में स्थित है। लेकिन इन दोनों दशाओं में नैतिक जीवन के लिए जिस गति की आवश्यकता है वह सम्यग् रूपेण सम्पन्न नहीं हो पाती। नैतिकता तो एक लक्ष्योन्मुख गति है, लेकिन उस गति में साधक की दृष्टि केवल उस भूमि पर ही स्थित है जिस पर वह गति कर रहा है और अपने गन्तव्य मार्ग की ओर सामने नहीं देखता है, तो कभी भी लक्ष्य के मध्य स्थित बाधाओं से टकराकर पदच्युत हो सकता है। इसी प्रकार जो साधक मात्र आदर्श की ओर देखता है और उस भूमि की ओर नहीं देखता जिस पर चल रहा है तो वह भी अनेक ठोकरें खाता है और काण्टकों से पद विद्ध कर लेता है। नैतिक जीवन में भी हमारी गति का वही स्वरूप होता है जो हमारे दैनिक जीवन में होता है। जिस प्रकार दैनिक जीवन में चलने के उपक्रम में हमारा काम न तो मात्र सामने देखने से चलता है न मात्र नीचे देखने से। जो पथिक मात्र नीची दृष्टि रखता है और सामने नहीं देखता वह ठोकर तो नहीं खाता लेकिन टकरा जाता है। जो सामने तो देखता है लेकिन नीचे नहीं देखता वह टकराता तो नहीं लेकिन ठोकर खा जाता है। चलने की सम्यक् प्रक्रिया में पथिक को सामने और नीचे दोनों ओर दृष्टि रखनी होती है। इसी प्रकार नैतिक जीवन में साधक को यथार्थ और आदर्श दोनों पर दष्टि रखनी होती है। साधक की एक आँख यथार्थ पर और टसरी आदर्श पर हो तभी वह नैतिक जीवन में सम्यक् प्रगति कर सकता है। सम्भवतः यह शंका हो सकती है कि हमें सामान्य जीवन में तो दो आँखें मिली है लेकिन नैतिक जीवन की दो आँखें कौन सी है। किसी अपेक्षा से ज्ञान और क्रिया को नैतिक जीवन की दो आँखें कहा जा सकता है। नैतिकता कहती है कि ज्ञान नामक आँख को आदर्श पर जमाओ और क्रिया नामक आँख को यथार्थ पर अर्थात् कर्म के आचरण में यथार्थता की ओर देखो और गन्तव्य की ओर प्रगति करने में आदर्श की ओर। जैनदर्शन ने नैतिकता के सापेक्ष और निरपेक्ष दोनों रूपों को स्वीकार किया है। लेकिन उसमें भी निरपेक्षता दो भिन्न-भिन्न अर्थों में रही हुई है। प्रथम प्रकार की निरपेक्षता जो कि वस्तुतः सापेक्ष ही है आवरण के सामान्य नियमों से सम्बन्धित है अर्थात् आचरण के जिन नियमों का विधि और निषेध सामान्य दशा में किया गया है, उस सामान्य दशा की अपेक्षा से आचरण के वे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11