Book Title: Jain Darshan me Manatavadi Chintan
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf

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Page 4
________________ चतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन यह पुत्री भी है, आपकी अपेक्षा से सब लोगों की अपेक्षा से नहीं । इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रत्येक वस्तु के दो पहलू होते हैं। तात्पर्य यह है कि हम जो कुछ भी कहते हैं उसकी सार्थकता एवं . सत्यता एक विशेष सन्दर्भ में तथा एक विशेष दृष्टिकोण से ही हो सकती है। केवल अपनी ही बात को सत्य मानकर उस पर अड़े रहना तथा दूसरों की बात को कोई महत्त्व न देना एक मानसिक संकीर्णता है और इस मानसिक संकीर्णता के लिए मानववाद में कोई स्थान नहीं है। Jain Education International मानववाद और अहिंसावाद अहिंसा का सामान्य अर्थ होता है हिंसा न करना । आचारांगसूत्र में अहिंसा को परिभाषित करते हुए कहा गया हैसब प्राणी, सब भूत, सब जीव और तत्त्वों को नहीं मारना चाहिए, न अन्य व्यक्ति द्वारा मरवाना चाहिए, न बलात् पकड़ाना चाहिए, न परिताप देना चाहिए, न उन पर प्राणहार उपद्रव करना चाहिए। यह अहिंसा-धर्म ही शुद्ध है । सूत्रकृतांग में कहा गया है-ज्ञानी होने का सार यही है कि किसी भी प्राणी की हिंसा न करें। अहिंसामूलक समता ही धर्म का सार है। बस, इतनी बात ध्यान में रखनी चाहिए। किन्तु अहिंसा की पूर्ण परिभाषा आवश्यकसूत्र में प्राप्त होती है। उसमें कहा गया है कि किसी भी जीव की तीन योग और तीन करण से हिंसा नहीं करनी चाहिए, यही अहिंसा है" । मन, वचन और कर्म तीन योग कहलाते हैं तथा करना, करवाना और अनुमोदन करना तीन करण कहलाते हैं । इस तरह नौ प्रकार से हिंसा नहीं करना ही अहिंसा है। अहिंसा के दो रूप होते हैं - निषेधात्मक और विधेयात्मक। इन्हें निवृत्ति और प्रवृत्ति भी कहा जाता है। दया, दान आदि अहिंसा के प्रवृत्यात्मक रूप है । यहाँ अहिंसा की विस्तृत व्याख्या न करके इतना कहना आवश्यक है कि जैन परंपरा में हर गतिशील वस्तु, चाहे वह जल, वायु, ग्रह, नक्षत्र ही क्यों न हो या पत्थर, वृक्ष जैसी गतिशून्य वस्तु ही क्यों न हो, उसमें भी जीवन शक्ति को स्वीकार किया गया है। यहाँ पर शंका उपस्थित हो सकती है कि जैन दर्शन पूर्ण जीव- दयावाद या पूर्ण अहिंसा में विश्वास करता है, फिर वह मानववादी कैसे हो सकता है? यह सच है कि जैन दर्शन पूर्ण अहिंसा में विश्वास करता है और इस दृष्टि से वह यहाँ मानवतावादी (Humanitarianistic) हो जाता है, लेकिन मात्र इस आधार पर जैन-दर्शन का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है, टेक सট६ 4 क्योंकि कई सन्दर्भों में तो वह मानववाद से भी आगे है। यद्यपि जैन धर्म अहिंसा के निषेधात्मक रूप पर ही विशेष बल देता है । पूर्वकाल में जैनाचार्यों ने अहिंसा के निषेधात्मक पक्ष को ही प्रस्तुत किया है और आज भी श्वेताम्बर तेरापंथी जैन समाज अहिंसा के निषेधात्मक पक्ष को ही मानता है। अहिंसा के विधेयात्मक पक्ष दया, दान आदि में उसका विश्वास नहीं है। जो जैन परंपरा के मानववादी दृष्टिकोण को प्रस्तुत करता है। मानववाद और जैन-दर्शन की विश्वदृष्टि लामोण्ट एक प्रजातांत्रिक मानववादी हैं। उनके अनुसार मानववाद मानवजाति का विश्वदर्शन है। यही एक दर्शन है जो बीसवीं शताब्दी की आत्मा और उसकी आवश्यकताओं के लिए उपयोगी है। यही वह दर्शन है जो मानवजीवन और उसके अस्तित्व का सामान्यीकरण है जो प्रायः सभी देशों और जातियों को समष्टिपूर्ण दृष्टिकोण प्रदान कर सकता है। जैन-धर्मदर्शन भी लोकमंगल की धारणा को लेकर ही आगे बढ़ता है। अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह का सिद्धान्त उसकी विश्वदृष्टि ही तो है। अहिंसा की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया हैं। यह अहिंसा भयभीतों के लिए शरण के समान है, पक्षियों के लिए आकाशगमन के समान प्यासों को पानी के समान, भूखों को भोजन के समान, समुद्र में जहाज के समान, रोगियों के लिए औषधि के समान और अटवी में सहायक के समान है ९९ । तीर्थंकर - नमस्कार सूत्र में लोकनाथ, , लोक-हितकर, लोकप्रदीप, अभयदाता आदि विशेषण तीर्थंकर के लिए प्रयुक्त हुए हैं, जो जैन दर्शन की विश्वदृष्टि को प्रस्तुत करते हैं । विश्व -कल्याण की भावना के अनुकूल प्रवृत्ति करने के कारण ही तो तीर्थंकर को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। जैनाचार्यों ने सदा ही आत्महित की अपेक्षा लोक कल्याण को महत्त्व दिया यह भावना आचार्य समन्तभद्र की इस उक्ति से स्पष्ट होती है। हे भगवन्, आपकी यह संघव्यवस्था सभी प्राणियों के दुःखों का अंत करने वाली और सबका कल्याण करने वाली है" । संघधर्म, राष्ट्रधर्म, नगरधर्म, ग्रामधर्म, कुलधर्म आदि का स्थानांगसूत्र २२ में उल्लेख होना यह प्रमाणित करता है कि जैन-धर्मदर्शन, लोकहित तथा लोकल्याण की भावना से ओतप्रोत है। For Private & Personal Use Only GâmbànSa www.jainelibrary.org

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