Book Title: Jain Darshan me Manatavadi Chintan
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में मानववादी चिंतन डॉ. विजयकुमार पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी....) दर्शन-जगत् में दो परंपराएँ प्राचीनकाल से प्रवाहित होती स्पष्ट होता है कि मानव की प्रतिष्ठा तथा अधिकारों के लिए आ रही हैं-प्रकृतिवादी और निरपेक्षवादी। प्रकृतिवाद जो प्रकृति सम्मान, व्यक्ति के रूप में उसके मूल्य, लोगों का मंगलको ही एकमात्र अंतिम सत्य तथा स्वयंभू मानता है, वहीं कल्याण उनके चहुंमुखी विकास, मनुष्य के लिए सामाजिक निरपेक्षवाद, प्रकृति को एक अंतिम सत्य की बाह्य अभिव्यक्ति जीवन की परिस्थितियों के निर्माण के लिए चिंता को अभिव्यक्त मानता है। किन्तु मानववाद, जो मानव की हो ही एकमात्र महत्त्व करने वाले विचारों की समग्रता ही मानववाद का लक्ष्य है। देता है, को प्रकृतिवाद और निरपेक्षवाद का विरोधी माना जाता वस्तुतः मानव-स्वतंत्रता ही मानववाद है। जैसा कि जे. मैक्यूरी है। क्योंकि मानववाद का मुख्य उद्देश्य मानव अनुभूति की ने कहा है -- मनुष्य के ऊपर किसी भी उच्चतर सत्ता का व्याख्या करना है। यह मनुष्य को बौद्धिक जगत के केन्द्र में अस्तित्व नहीं देखा जाता है, इसलिए मनुष्य आवश्यक रूप से रखता है तथा विज्ञान को मानव जीवन से संबंधित करता है। अपने मूल्य की सृष्टि करता है, अपना मापदण्ड एवं लक्ष्य एक प्रकृतिवादी की दृष्टि में मानव अधिक से अधिक एक बनाता है, अपने मोक्ष के लिए कार्यक्रम बनाता है। मनुष्य की प्राकृतिक वस्तु है। उसका उतना ही महत्त्व हो सकता है जितना अपनी शक्ति एवं बुद्धि से परे कुछ भी नहीं है, इसलिए अपनी कि अन्य प्राकृतिक वस्तुओं का। इसी प्रकार एक निरपेक्षवादी सहायता के लिए अपने से बाहर नहीं देख सकता, इसी रूप में के अनुसार मानव भी अंतिम सत्य की अभिव्यक्ति मात्र है, उसे अपने या समाज के बाहर किसी भी निर्णय के प्रति समर्पण अपने स्वरूप तथा नियति का निर्माता नहीं। अत: स्वाभाविक है करने की आवश्यकता नहीं है। अत: मानव-स्वतंत्रता मानववाद कि मानववाद इन दोनों सिद्धान्तों से भिन्न होगा। बाल्डविन की का आधार है, क्योंकि ईश्वर या ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास डिक्शनरी ऑफ फिलॉसफी एण्ड साइकोलोजी में मानववाद करने पर मानव सुखी नहीं रह सकता। इतना ही नहीं ईश्वर या को परिभाषित करते हुए कहा गया है -- यह विचार विश्वास ईश्वर में विश्वास मनुष्य के उत्तरदायित्व को भी समाप्त कर देता अथवा कर्म संबंधी वह पद्धति है जो ईश्वर का परित्याग करके है। इससे स्पष्ट होता है कि मनुष्य ही अपने मूल्यों का निर्धारण मनुष्य तथा सांसारिक वस्तुओं पर ही केन्द्रित रहती है। पाश्चात्य करता है। कैपलेस्टन ने अपनी पुस्तक में दार्शनिक कोर्लिस लामोण्ट के अनुसार मानववाद समस्त मानव सर्वप्रथम अस्तित्व देखा जाता है और तभी वह अपने को जाति का विश्व-दर्शन है जो विभिन्न जातियों और संस्कृतियों के परिभाषित करता है। वह अपनी स्वतंत्र इच्छाओं द्वारा स्वयं को व्यक्तियों और उनकी असंख्य संतानों के दार्शनिक एवं नैतिक निर्मित करता है। वह सिर्फ उसी के लिए उत्तरदायी होता है मार्गदर्शन में समर्थ हो सकता है। ऐनसाइक्लोपीडिया ऑफ जिसका निर्माण वह स्वयं करता है। मनुष्य मूल्यों का सृष्टा भी ह्यूमिनिटीज (Encyclopaedia of Humanities) में लिखा है कि है और दृष्टा भी है। निरपेक्ष मूल्यों का कोई अस्तित्व नहीं है। मानवजीवन की समस्याओं को महत्त्व प्रदान करने की प्रवृत्ति सार्वभौम और आवश्यक नैतिक नियम का भी कोई अस्तित्व मानववाद है, विश्व में मानव को सर्वोत्तम स्थान देने की प्रवृत्ति नहीं है। मनुष्य अपने मूल्य का चयन स्वयं करता है। मानववाद है'। इसी में आगे कहा गया है कि यह वह विचारधारा उपर्यक्त मानववादी दार्शनिक परंपरा में जैन-दर्शन का है जो मानवीय मूल्यों और मानवीय आदर्शा का प्राधान्य स्वीकार भी नाम आता है। संपर्ण भारतीय दर्शन में एक जैन दर्शन ही है, करती है, यह वह विचारधारा है जो मानव प्रकृति के उस पक्ष जो पूर्ण मानव स्वतंत्रता की बात करता है। यह वह दर्शन है जो पर बल देती है जो प्रेम, दया, सहयोग और प्रगति में व्यक्त होता मानव कल्याण, मानव की कर्त्तव्य-परायणता, मानव-समता, है न कि कठोरता, स्वार्थ या आक्रमणशीलता पर। इससे यह मानव की महत्ता, उसकी चारित्रिक शुद्धि, सर्वमंगल की भावना, " Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - चतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन - अहिंसक प्रवृत्ति, सुदृढ़ एवं स्वच्छ आर्थिक व्यवस्था, आध्यात्मिक, कर्मों के फल को भोगता हुआ तथा नवीन कर्मों का बंध करता सामाजिक एवं नैतिक मूल्य, विश्वबंधुत्व की भावना तथा ईश्वर का हुआ गतिशील रहता है। ऐसा नहीं कहा जा सकता बल्कि कर्म मानवीयकरण आदि मानववादी चिंतनों को अपने में समेटे हुए है। सिद्धान्त के अंतर्गत इच्छा-स्वातंत्र्य को स्थान दिया गया है। वह इस रूप में कि पूर्वकृत कर्मों का फल किसी न किसी रूप में मानव की महत्ता अवश्य भोगना पड़ता है, किन्तु नए कर्मों का उपार्जन करने में मानव की महत्ता को न केवल जैनागमों में बल्कि वैदिक वह किसी सीमा तक स्वतंत्र है। यह सत्य है कि कृतकर्म का ग्रन्थों एवं बौद्ध साहित्य में भी स्वीकार किया गया है। महाभारत भोग किए बिना जीव को मुक्ति नहीं मिल सकती, किन्तु यह के शांतिपर्व में कहा गया है-न मानुषात श्रेष्ठतरं हि किञ्चित। अनिवार्य नहीं है कि प्राणी अमुक समय में अमक कर्म ही अर्थात् मनुष्य से श्रेष्ठ और कुछ नहीं है। धम्मपद में कहा गया उपार्जित करे। वह बाह्य परिस्थिति एवं अपनी आंतरिक शक्ति है- किच्चे मणुस्स पटिलाभो अर्थात् मनुष्य जन्म दर्लभ है। को ध्यान में रखते हुए नए कर्मों का उपार्जन रोक सकता है। इन गोस्वामी तुलसीदास ने भी मानव की दुर्लभता को बताते हुए बातों से स्पष्ट होता है कि कर्मवाद में इच्छा-स्वातंत्र्य तो है किन्तु कहा है- बड़े भाग मानुस तन पाना। सच, सुकर्मों के सीमित है। क्योंकि कर्मवाद के अनुसार प्राणी अपनी शक्ति एवं परिणामस्वरूप ही यह मानव तन प्राप्त होता है। उत्तराध्ययन । बाह्य परिस्थितियों की अवहेलना करके कोई कार्य नहीं कर सूत्र में मानव की गरिमा को बताते हुए कहा गया है-जब अशुभ सकता, जिस प्रकार वह परिस्थितियों का दास है उसी प्रकार उसे कर्मों का विनाश होता है, तब आत्मा शुद्ध, निर्मल और पवित्र अपने पराक्रम की सीमा का भी ध्यान रखना पड़ता है। जैन होती है और तभी उसे मानवजन्म की प्राप्ति होती है। कितनी विद्वान् पद्मनाभ जैनी के अनुसार -जैनधर्म मनुष्य को पूर्ण ही योनियों में भटकने के बाद यह मानव का शरीर आकार रूप धार्मिक स्वतंत्रता देने में हर अन्य धर्म से बढ़कर है। जो कुछ को प्राप्त करता है। तभी तो महावीर ने कहा है-- चिरकाल तक कर्म हम करते हैं और उनके जो फल हैं उनके बीच कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता। एक बार कर लिए जाने पर कृत कर्म इधर-उधर भटकने के पश्चात् बड़ी कठिनाई से सांसारिक जीवों को मनुष्य का जन्म प्राप्त होता है. सहज नहीं है। दष्कर्म का । हमारे प्रभु बन जाते हैं और उनके फल भोगने ही पड़ते हैं। मेरा स्वातंत्र्य जितना बड़ा है उतना ही बड़ा मेरा दायित्व भी है। मैं फल बड़ा भयंकर होता है। अतएव हे गौतम! क्षणभर के लिए स्वेच्छानुसार चल सकता हूँ, किन्तु मेरा चुनाव अन्यथा नहीं हो भी प्रमाद मत करो। इतना ही नहीं जैन-चिंतन में मानव को सकता और उसके परिणामों से मैं बच नहीं सकता। कर्म के अनन्त ज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य और अनन्त आनंदवाला आधार पर व्यक्ति देवत्व को प्राप्त करता है। अर्थात् मानव माना गया है। प्रत्येक मनुष्य में देवत्व प्राप्त करने की जन्मजात स्वयं अपना भाग्य विधाता है। क्षमता होती है। प्रत्येक वर्ण एवं वर्ग का व्यक्ति इस पूर्णता की प्राप्ति का अधिकारी है। जैनकर्मसिद्धान्त की ही भाँति मानववाद भी इच्छास्वातंत्र्य को मानता है। इच्छा-स्वातंत्व्य का यह अभिप्राय नहीं है कि जो मानववाद और कर्मवाद मन में आये, वही करें। ऐसे इच्छा-स्वातंत्र्य के लिए न तो कर्म के विषय में जितनी विस्तत और सक्षम व्याख्या जैन मानववाद में कोई स्थान है और न ही जैन-कर्मवाद में। जिस दर्शन में की गई है, उतनी शायद ही किसी अन्य दर्शन में की। प्रकार जैन-कर्मवाद यह स्वीकार करता है कि मानव स्वयं गई हो। कर्मवाद का एक सामान्य नियम है कि पूर्व में किए गए अपना भाग्य विधाता है उसी प्रकार मानववाद भी मानता है कि कर्मों के फल को भोगना तथा नए कर्मों का उपार्जन करना और व्यक्ति अपने पुरुषार्थ के बल पर बिना किसी दैविक शक्ति के इसी पूर्वकृत कर्मों के भोग और नवीन कर्मों के उपार्जन की ईश्वरत्व को प्राप्त कर सकता है। साथ ही मानववाद कर्म के औचित्य और अनौचित्य का निर्धारण समाज पर उसके परिणाम परम्परा में प्राणी जीवन व्यतीत करता रहता है। किन्तु प्रश्न उठता है कि कर्मवाद में कहीं पर व्यक्ति को अपनी स्वतंत्रता के के आधार पर करता है। इसी प्रकार जैन-दर्शन व्यवहार दृष्टि से कर्म-परिणाम को और निश्चय-दृष्टि से कर्मप्रेरक को औचित्य उपयोग का भी अवसर प्राप्त होता है या मशीन की भाँति पूर्वकृत और अनौचित्य के निर्णय का आधार मानता है। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन मानववाद और अपरिग्रहवाद मानववाद और अनैकान्तिक दृष्टि मानववाद आर्थिक समानता में विश्वास करता है। मानववादी सामाजिक विषमता का एक प्रमुख कारण वैचारिक भिन्नता दृष्टिकोण में आर्थिक क्रियाएँ समस्त मानवीय चिंतन और प्रगति भी है। अनेकान्तवाद इस वैचारिक भिन्नता को दूर करता है। की केन्द्रबिंदु हैं। वस्तुतः मानववाद के अनुसार आर्थिक विषमता अनेक से तात्पर्य है -- अनेक धर्म (लक्षण), अनेक सीमाएँ, ही सामाजिक विषमता का मूल कारण है। इस आर्थिक विषमता अनेक अपेक्षाएँ, अनेक दृष्टियाँ आदि। जो किसी एक धर्म, एक को दूर करने के लिए ही जैन-दर्शन ने अपरिग्रह का सिद्धान्त सीमा, एक अपेक्षा तथा एक दृष्टि को सत्य मानता है और अन्य दिया है। परिग्रह, जिसे संग्रहवृत्ति भी कहा जाता है, एक प्रकार दृष्टियों को गलत कहता है, वह एकान्तवादी कहलाता है तथा की सामाजिक हिंसा है। यह परिग्रहवृत्ति आसक्ति से उत्पन्न होती जो अनेक धर्मों या अपेक्षाओं को मान्यता प्रदान करता है, वह है। आसक्ति का दूसरा नाम लोभ है। दशवैकालिकसूत्र में कहा अनेकान्तवादी कहलाता है। 'अनन्तधर्मात्मकं वस्तु' अर्थात् वस्तु गया है कि लोभ समग्र सद्गुणों का विनाशक है। तृष्णा के के अनन्त धर्म होते हैं। उन अनन्त धर्मों में से व्यक्ति अपने स्वरूप को बताते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है -- यदि इच्छित धर्मों का समय-समय पर कथन करता है। वस्तु के उन सोने और चाँदी के कैलाशपर्वत के समान असंख्य पर्वत भी अनन्त धर्मों के दो प्रकार होते हैं--गुण और पर्याय। जो धर्म खड़े कर दिए जाएँ तो भी यह दुष्पूर्ण तृष्णा शांत नहीं हो सकती, वस्तु के स्वरूप का निर्धारण करते हैं अर्थात् जिनके बिना वस्तु क्योंकि धन चाहे कितना भी हो वह सीमित ही है तृष्णा अनन्त का अस्तित्व कायम नहीं रह सकता, उन्हें गुण कहते हैं, जैसे और असीम है, अत: सीमित साधनों से इस असीम तृष्णा की मनुष्य में मनुष्यत्व सोना में सोनापन। मनुष्य में यदि मनुष्यत्व पूर्ति नहीं की जा सकती१३। अत: जैन -आचारदर्शन के अनुसार न हो तो वह और कुछ हो सकता है मनुष्य नहीं। इसी प्रकार यदि व्यक्ति आसक्ति की भावना का त्याग करके अनासक्ति को सोने में सोनापन न हो तो वह अन्य कोई द्रव्य हो सकता है जीवन में उतारने का प्रयत्न करे। क्योंकि उत्तराध्ययन में स्पष्ट सोना नहीं। गुण वस्तु में स्थायी रूप से रहता है, जबकि पर्याय रूप में कहा गया है कि जो समविभाग और समवितरण नहीं बदलते रहते हैं। इस प्रकार जैन-दर्शन स्थायित्व और अस्थायित्व करता उसकी मुक्ति संभव नहीं है। ऐसा व्यक्ति पापी है। का समन्वय करते हुए कहता है कि वस्तु गुण की दृष्टि से ध्रुव है, अतः व्यक्ति को उतना ही संग्रह करना चाहिए जितने की स्थायी है तथा पर्याय की दृष्टि से अस्थायी है। भगवतीसूत्र१५ में उसको आवश्यकता है। आवश्यकता से तात्पर्य है - जो जीवन कहा गया है- हम, जो अस्ति है उसे अस्ति कहते हैं, जो नास्ति को बनाए रखे और व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास को कुण्ठित है उसे नास्ति कहते हैं। प्रत्येक पदार्थ है भी और नहीं भी। अपने न करे। इस प्रकार जैन दर्शन न केवल आवश्यकता का परिसीमन निजस्वरूप से है और परस्वरूप से नहीं है। अपने पुत्र की करता है, बल्कि यह भी बताता है कि हमें जीवन की अनिवार्यताओं अपेक्षा से पिता, पिता रूप में सत् है और पररूप की अपेक्षा से और तृष्णा के अंतर को जानना एवं समझना चाहिए। तृष्णा पिता, पिता रूप में असत् है। यदि पर पुत्र की अपेक्षा से पिता ही अनन्तता है तो अनिवार्यता सीमितता। संग्रह और शोषण की है तो वह सारे संसार का पिता हो जाएगा, जो असंभव है। इसे दुष्प्रवृत्तियों के फलस्वरूप आर्थिक एवं वर्ग -संघर्ष का जन्म होता और भी सरल भाषा में हम इस प्रकार कह सकते हैं- गुड़िया है। इस वर्ग-संघर्ष को दूर करने का एकमात्र उपाय है- अपरिग्रह चौराहे पर खड़ी है। एक ओर से छोटा बालक आता है, वह उसे का सिद्धान्त। साधक हो या गृहस्थ, उसे अपरिग्रह के मार्ग पर माँ कहता है। दूसरी ओर से एक वृद्ध आता है, वह उसे पुत्री चलने को जैन आचार-दर्शन में आवश्यक माना गया है। कहता है। इसी प्रकार कोई उसे ताई, कोई मामी तो कोई फूफी कहता है। सभी एक ही व्यक्ति को विभिन्न नामों से संबोधित इस प्रकार हम देखते हैं कि मानववाद और जैन-चिंतन करते हैं तथा परस्पर संघर्ष करते हैं कि यह माँ ही है, पुत्री ही है, दोनों ही मानव मात्र की समानता में विश्वास करते हैं। दोनों के पत्नी ही है आदि। इस संघर्ष का समाधान अनेकान्तवाद करता अनुसार संग्रह और वैयक्तिक परिग्रह सामाजिक जीवन के लिए ए है। वह कहता है कि यह तुम्हारे लिए माँ है, क्योंकि तुम इसके अभिशाप है, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य को जीने का समान अधिकार है। पत्र हो अन्य लोगों के लिए यह माँ नहीं है। वद्ध से कहता है कि Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन यह पुत्री भी है, आपकी अपेक्षा से सब लोगों की अपेक्षा से नहीं । इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रत्येक वस्तु के दो पहलू होते हैं। तात्पर्य यह है कि हम जो कुछ भी कहते हैं उसकी सार्थकता एवं . सत्यता एक विशेष सन्दर्भ में तथा एक विशेष दृष्टिकोण से ही हो सकती है। केवल अपनी ही बात को सत्य मानकर उस पर अड़े रहना तथा दूसरों की बात को कोई महत्त्व न देना एक मानसिक संकीर्णता है और इस मानसिक संकीर्णता के लिए मानववाद में कोई स्थान नहीं है। मानववाद और अहिंसावाद अहिंसा का सामान्य अर्थ होता है हिंसा न करना । आचारांगसूत्र में अहिंसा को परिभाषित करते हुए कहा गया हैसब प्राणी, सब भूत, सब जीव और तत्त्वों को नहीं मारना चाहिए, न अन्य व्यक्ति द्वारा मरवाना चाहिए, न बलात् पकड़ाना चाहिए, न परिताप देना चाहिए, न उन पर प्राणहार उपद्रव करना चाहिए। यह अहिंसा-धर्म ही शुद्ध है । सूत्रकृतांग में कहा गया है-ज्ञानी होने का सार यही है कि किसी भी प्राणी की हिंसा न करें। अहिंसामूलक समता ही धर्म का सार है। बस, इतनी बात ध्यान में रखनी चाहिए। किन्तु अहिंसा की पूर्ण परिभाषा आवश्यकसूत्र में प्राप्त होती है। उसमें कहा गया है कि किसी भी जीव की तीन योग और तीन करण से हिंसा नहीं करनी चाहिए, यही अहिंसा है" । मन, वचन और कर्म तीन योग कहलाते हैं तथा करना, करवाना और अनुमोदन करना तीन करण कहलाते हैं । इस तरह नौ प्रकार से हिंसा नहीं करना ही अहिंसा है। अहिंसा के दो रूप होते हैं - निषेधात्मक और विधेयात्मक। इन्हें निवृत्ति और प्रवृत्ति भी कहा जाता है। दया, दान आदि अहिंसा के प्रवृत्यात्मक रूप है । यहाँ अहिंसा की विस्तृत व्याख्या न करके इतना कहना आवश्यक है कि जैन परंपरा में हर गतिशील वस्तु, चाहे वह जल, वायु, ग्रह, नक्षत्र ही क्यों न हो या पत्थर, वृक्ष जैसी गतिशून्य वस्तु ही क्यों न हो, उसमें भी जीवन शक्ति को स्वीकार किया गया है। यहाँ पर शंका उपस्थित हो सकती है कि जैन दर्शन पूर्ण जीव- दयावाद या पूर्ण अहिंसा में विश्वास करता है, फिर वह मानववादी कैसे हो सकता है? यह सच है कि जैन दर्शन पूर्ण अहिंसा में विश्वास करता है और इस दृष्टि से वह यहाँ मानवतावादी (Humanitarianistic) हो जाता है, लेकिन मात्र इस आधार पर जैन-दर्शन का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है, टेक सট६ 4 क्योंकि कई सन्दर्भों में तो वह मानववाद से भी आगे है। यद्यपि जैन धर्म अहिंसा के निषेधात्मक रूप पर ही विशेष बल देता है । पूर्वकाल में जैनाचार्यों ने अहिंसा के निषेधात्मक पक्ष को ही प्रस्तुत किया है और आज भी श्वेताम्बर तेरापंथी जैन समाज अहिंसा के निषेधात्मक पक्ष को ही मानता है। अहिंसा के विधेयात्मक पक्ष दया, दान आदि में उसका विश्वास नहीं है। जो जैन परंपरा के मानववादी दृष्टिकोण को प्रस्तुत करता है। मानववाद और जैन-दर्शन की विश्वदृष्टि लामोण्ट एक प्रजातांत्रिक मानववादी हैं। उनके अनुसार मानववाद मानवजाति का विश्वदर्शन है। यही एक दर्शन है जो बीसवीं शताब्दी की आत्मा और उसकी आवश्यकताओं के लिए उपयोगी है। यही वह दर्शन है जो मानवजीवन और उसके अस्तित्व का सामान्यीकरण है जो प्रायः सभी देशों और जातियों को समष्टिपूर्ण दृष्टिकोण प्रदान कर सकता है। जैन-धर्मदर्शन भी लोकमंगल की धारणा को लेकर ही आगे बढ़ता है। अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह का सिद्धान्त उसकी विश्वदृष्टि ही तो है। अहिंसा की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया हैं। यह अहिंसा भयभीतों के लिए शरण के समान है, पक्षियों के लिए आकाशगमन के समान प्यासों को पानी के समान, भूखों को भोजन के समान, समुद्र में जहाज के समान, रोगियों के लिए औषधि के समान और अटवी में सहायक के समान है ९९ । तीर्थंकर - नमस्कार सूत्र में लोकनाथ, , लोक-हितकर, लोकप्रदीप, अभयदाता आदि विशेषण तीर्थंकर के लिए प्रयुक्त हुए हैं, जो जैन दर्शन की विश्वदृष्टि को प्रस्तुत करते हैं । विश्व -कल्याण की भावना के अनुकूल प्रवृत्ति करने के कारण ही तो तीर्थंकर को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। जैनाचार्यों ने सदा ही आत्महित की अपेक्षा लोक कल्याण को महत्त्व दिया यह भावना आचार्य समन्तभद्र की इस उक्ति से स्पष्ट होती है। हे भगवन्, आपकी यह संघव्यवस्था सभी प्राणियों के दुःखों का अंत करने वाली और सबका कल्याण करने वाली है" । संघधर्म, राष्ट्रधर्म, नगरधर्म, ग्रामधर्म, कुलधर्म आदि का स्थानांगसूत्र २२ में उल्लेख होना यह प्रमाणित करता है कि जैन-धर्मदर्शन, लोकहित तथा लोकल्याण की भावना से ओतप्रोत है। GâmbànSa Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - चतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन मानववाद और जैन-दर्शन का समतावादी दृष्टिकोण मानववाद और जैन-ईश्वरवाद मानववाद और जैन-दर्शन दोनों ही समतावाद में विश्वास ईश्वरवादियों की यह मान्यता है है कि ईश्वर इस जगत् का करते हैं। दोनों की मान्यता है कि समाज में विभिन्न वर्ग और सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता तथा संहारकर्ता है। जीवों को नाना योनियों विचारधारा के लोग रहते हैं, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं में उत्पन्न करना, उनकी रक्षा करना और अपने-अपने कर्म के है कि मानव, मानव से अलग है। दोनों ही मनुष्य हैं, दोनों में अनुसार फल देना ईश्वर का कार्य है। वही जीवों का भाग्यमनुष्यता का वास है। व्यक्ति न तो जन्म से और न ही जाति से विधाता है। वह अपने भक्त की स्तुति या पूजा से प्रसन्न होकर ऊँचा-नीचा है,बल्कि सब कर्म के आधार पर होते हैं। कर्म के उसके सारे अपराधों को क्षमा कर देता है। द्वारा ही वह उच्च पद को प्राप्त करता है और कर्म के द्वारा ही जैन-दर्शन में उपर्यक्त ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं पतन की ओर अग्रसर होता है। जैन-परंपरा में इस तरह के कई किया गया है। जैन-दर्शन का ईश्वर न तो किसी की स्तुति से उदाहरण मिलते हैं। जैन मुनि हरिकेशबल जन्म से चाण्डाल कुल प्रसन्न होता है और न नाराज ही होता है। क्योंकि वह वीतरागी के थे, जिसके कारण उन्हें चारों ओर से भर्त्सना और घृणा के है। जैन-दर्शन न तो ईश्वर के सष्टिकर्तत्व में विश्वास करता है और सिवा कुछ न मिला। वे जहाँ भी गए, वहाँ उन्हें अपमान रूप मान रूप न ही उसके अनादि सिद्धत्व में। और न ही उसके अनुसार ईश्वर से विष का प्याला ही मिला, लेकिन जब उन्होंने जीवन की पवित्रता एक है। जैन-मान्यता के अनुसार प्राणी स्वयं अपने कर्मों द्वारा का सही मार्ग अपना लिया तो वही वन्दनीय और पूजनीय हो सुख-दुःख को प्राप्त करता है तथा बिना किसी दैवी-कृपा के गए। भगवान महावीर ने बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहा है-- स्वयं अपने प्रयत्न से अपना विकास करके ईश्वर बन सकता कम्मुणा बंमणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ। है। ईश्वर पद किसी व्यक्ति विशेष के लिए सुरक्षित नहीं है, वइस्सो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मणा।।२३ बल्कि सभी आत्माएँ समान हैं और सब अपना विकास करके अर्थात कर्म से ही व्यक्ति बाह्मण होता है। कर्म से ही सर्वज्ञता और ईश्वरत्व को प्राप्त कर सकते हैं। प्रत्येक आत्मा में क्षत्रिय। कर्म से ही वैश्य और शुद्र होता है। अतः श्रेष्ठता और अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्त वीर्य होता है। पवित्रता का आधार जाति नहीं बल्कि मनष्य का अपना कर्म अतः गुण की दृष्टि से आत्मा अर्थात् साधारण जीव और ईश्वर में है। मुनि चौथमलजी के मतानुसार एक व्यक्ति दुःशील अज्ञानी कोई अंतर नहीं होता। अंतर है तो गुणों की प्रसुप्तावस्था का और और प्रकृति से तमोगुणी होने पर भी अमुक वर्ण वाले के घर में । उनकी विकासावस्था का। जैन-मान्यता के अनुसार ईश्वर के जन्म लेने के कारण समाज में पज्य आदरणीय प्रतिष्ठित और स्वरूप को निर्धारित-करते हुए श्री ज्ञानमुनिजी ने लिखा है --- यह ऊँचा समझा जाए, और दूसरा व्यक्ति सुशील, ज्ञानी और सतोगुणी सत्य है कि जैन-दर्शन वैदिक दर्शन की तरह ईश्वर को जगत् का होने पर भी केवल अमुक कुल में जन्म लेने के कारण नीच और कर्ता, भाग्यविधाता, कर्मफलदाता तथा संसार का सर्वेसर्वा नहीं तिरस्करणीय माना जाए, यह व्यवस्था समाजघातक है। जैन की और मानता है। जैन-दर्शन का विश्वास है कि ईश्वर सत्यस्वरूप है, ज्ञान विचारणा में इस विषमता के लिए कोई स्थान नहीं है। वस्ततः स्वरूप है, आनन्दस्वरूप है, वीतराग हैं, सर्वज्ञ है, सर्वदर्शी है। सभी व्यक्ति जन्मतः समान हैं। उनमें धनी अथवा निर्धन उच्च उसका दृश्य या अदृश्य जगत् के विषय में प्रत्यक्ष या परोक्ष कोई अथवा निम्न का कोई भेद नहीं है। आचारांगसूत्र में स्पष्ट कहा हस्तक्षेप नहीं है। वह जगत् का निर्माता नहीं है, भाग्यविधाता नहीं है, गया है कि साधनामार्ग का उपदेश सभी के लिए समान है। जो कर्मफल का प्रदाता नहीं है तथा वह अवतार लेकर मनुष्य या उपदेश एक धनवान या उच्चकुल के व्यक्ति के लिए है. वही किसी अन्य पशु आदि के रूप में संसार में आता भी नहीं है। उपदेश गरीब या निम्न कुलोत्पन्न व्यक्ति के लिए है। इस प्रकार इस प्रकार जैन-दर्शन और मानववाद (Humanism) दोनों जैन-धर्म-दर्शन ने जातिगत आधार पर ऊँचनीच का भेद अस्वीकार ही ईश्वर की सत्ता को स्वीकार न करके मानव अस्तित्व और कर मानव मात्र की समानता पर बल दिया। उसके पुरुषार्थ में विश्वास करते हैं। दोनों ही मानते हैं कि मानव में ईश्वरत्व को प्राप्त करने की क्षमता निहित है। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1/4/1 - यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन दर्शन उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है जैन - 15. नो खलु वयं देवाणुप्पिया अस्थिभावं नत्थि त्ति वयामो, दर्शन एक मानववादी दर्शन है। जिस मानववादी दर्शन का नत्थिभावं अत्थि त्ति वयामो, अम्हे णं देवाणुप्पिया। सव्वं सूत्रपात पाश्चात्य जगत् में प्रोटागोरस ने ई.पू. पाँचवीं-छठी शती अत्थिभावं अत्थि त्ति वयामो, सव्वं नत्थिभावं नत्थि त्ति में मैन इज दि मीजर ऑफ ऑल थिंग्स (Man is the measure of वयामो।। भगवतीसूत्र, 7/10/1 all things) कहकर किया था। वह मानववादी दर्शन हमारी भारतीय 16. सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता, परंपरा के जैन-दर्शन में उसके पूर्व से विद्यमान था, जो हमारे न हंतव्वा, न अज्जावेयव्वा, न परिधितव्वा, लिए गौरव का विषय है। न परियावेयव्वा, न उद्देवेयव्वा, एस धम्मे सुद्धे। आचारंगसूत्र सन्दर्भ 17. एवं खलु नाणिरणो सारं जं न हिंसइ किंचण। Humanism in Philosophy is opposed to Naturalism and Abosolutism, it disignates the philos phic attitude which अहिंसा समय चेव एतावंतं वियाणिया ।।सूत्रकृतांग 1/ regards the, interpratation of human experience of the 1/4/10 primary concern of philosophizing, and asserts the adequacy othuman knowledge for the purpose. Ency- 18. करेमि भंते सामाइयं सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि clopaedia of Ethics & Religion, Vol-VI, P. 830 जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए, काएणं न The Philosophy of Humanism, P.8 करेमि, न कारवेमि, करंतंपि अन्नं न समणु जाणामि। तस्स Encyclopaedia of Humanities (Philosophy) P. 97 Ibid. भंते। पडिक्कमामि, निंदामि गरिठामि अप्पाणं वोसिरामि। God and Secularity, P. 103-104 आवश्यकसूत्र 1/1 6. Philosopher's and Philosophies, P. 165-166 19. एसा सा भगवई अहिंसा जा सा भीयाण विव सरणं, पक्खीणं 7. शांतिपर्व (महाभारत), 299/20 विव गमणं, तिसियाणं विव सलिलं.खहियाणं विव असणं, 8. किच्चे मणुस्स पटिलाभो। धम्मपद, 182 समुद्दमज्झे व पोयवहणं, चउप्पयाणं व आसमपयं, 9. कम्माणं तु पहाणाए, आणुपुव्वी कयाइउ। दुहट्ठियाणं व ओसहिबलं अइवीमज्झे व सत्थगमणं एतो जीवो सोहिमणुप्पत्ता आययंति मणुस्सयं।। उत्तराध्यन, 37 विसिट्ठतरिया अहिंसा जा सा.। प्रश्रव्याकरण 2/1/108 10. दुल्लहे खलु माणुसे भवे, चिरकालेण वि सव्वपाणिणं। नमोत्थुणं अरहंताणं...लोगुत्तमाणं लोकनाहाणं लोगहियाणं गाढा य विवाग कम्मुणो, सयमं गोयम। मापमायए / / वही 10/4 लोगपईवाणं लोगपज्जोयगराणं अभयदयाणं...णमो जिणाणं 11. Outlines of Jainism. P 3-4 जियभयाणं। पहली किरण, साध्वीश्री राजीमतीजी, पृ. 30-31 12. कोहो पीइं पणासेइ, माणो विणयनासणो। 21. सर्वोदयदर्शन, आमुख पृ. 6 माया मित्ताणि नासेइ, लोमो सव्वविणासणो // 22. दसविधे धम्मे पण्णत्ते, तं जहा गामधम्मे पागरधम्मे, रट्ठधम्मे, दशवैकालिक - 8/38 पासंडधम्मे, कुलधम्मे, गणधम्मे, संघधम्मे, सुयधम्मे, 13. सुवण्ण रुप्पस्स उपव्वया भवे सियाहु केलाससमा असंखया चरित्तधम्मे अस्थिकायधम्मे। स्थानांगसूत्र 10/135 - नरस्स लुद्धस्स्नतेहिं किंचिंइच्छाउ आगाससमा अणन्तिया 23. उत्तराध्ययन, 25/33 उत्तराध्ययन 9/48 24. मरुधरकेसरी अभिनंदनग्रन्थ, जोधपुर 1968, द्वितीय खण्ड, 14. असंविभागी अचियत्ते। वही 17/11 पृ.७७ 20.