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- चतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन मानववाद और जैन-दर्शन का समतावादी दृष्टिकोण मानववाद और जैन-ईश्वरवाद
मानववाद और जैन-दर्शन दोनों ही समतावाद में विश्वास ईश्वरवादियों की यह मान्यता है है कि ईश्वर इस जगत् का करते हैं। दोनों की मान्यता है कि समाज में विभिन्न वर्ग और सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता तथा संहारकर्ता है। जीवों को नाना योनियों विचारधारा के लोग रहते हैं, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं में उत्पन्न करना, उनकी रक्षा करना और अपने-अपने कर्म के है कि मानव, मानव से अलग है। दोनों ही मनुष्य हैं, दोनों में अनुसार फल देना ईश्वर का कार्य है। वही जीवों का भाग्यमनुष्यता का वास है। व्यक्ति न तो जन्म से और न ही जाति से विधाता है। वह अपने भक्त की स्तुति या पूजा से प्रसन्न होकर ऊँचा-नीचा है,बल्कि सब कर्म के आधार पर होते हैं। कर्म के उसके सारे अपराधों को क्षमा कर देता है। द्वारा ही वह उच्च पद को प्राप्त करता है और कर्म के द्वारा ही जैन-दर्शन में उपर्यक्त ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं पतन की ओर अग्रसर होता है। जैन-परंपरा में इस तरह के कई
किया गया है। जैन-दर्शन का ईश्वर न तो किसी की स्तुति से उदाहरण मिलते हैं। जैन मुनि हरिकेशबल जन्म से चाण्डाल कुल प्रसन्न होता है और न नाराज ही होता है। क्योंकि वह वीतरागी के थे, जिसके कारण उन्हें चारों ओर से भर्त्सना और घृणा के है। जैन-दर्शन न तो ईश्वर के सष्टिकर्तत्व में विश्वास करता है और सिवा कुछ न मिला। वे जहाँ भी गए, वहाँ उन्हें अपमान रूप
मान रूप न ही उसके अनादि सिद्धत्व में। और न ही उसके अनुसार ईश्वर
से विष का प्याला ही मिला, लेकिन जब उन्होंने जीवन की पवित्रता
एक है। जैन-मान्यता के अनुसार प्राणी स्वयं अपने कर्मों द्वारा का सही मार्ग अपना लिया तो वही वन्दनीय और पूजनीय हो
सुख-दुःख को प्राप्त करता है तथा बिना किसी दैवी-कृपा के गए। भगवान महावीर ने बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहा है--
स्वयं अपने प्रयत्न से अपना विकास करके ईश्वर बन सकता कम्मुणा बंमणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ। है। ईश्वर पद किसी व्यक्ति विशेष के लिए सुरक्षित नहीं है, वइस्सो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मणा।।२३ बल्कि सभी आत्माएँ समान हैं और सब अपना विकास करके
अर्थात कर्म से ही व्यक्ति बाह्मण होता है। कर्म से ही सर्वज्ञता और ईश्वरत्व को प्राप्त कर सकते हैं। प्रत्येक आत्मा में क्षत्रिय। कर्म से ही वैश्य और शुद्र होता है। अतः श्रेष्ठता और अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्त वीर्य होता है। पवित्रता का आधार जाति नहीं बल्कि मनष्य का अपना कर्म अतः गुण की दृष्टि से आत्मा अर्थात् साधारण जीव और ईश्वर में है। मुनि चौथमलजी के मतानुसार एक व्यक्ति दुःशील अज्ञानी
कोई अंतर नहीं होता। अंतर है तो गुणों की प्रसुप्तावस्था का और और प्रकृति से तमोगुणी होने पर भी अमुक वर्ण वाले के घर में ।
उनकी विकासावस्था का। जैन-मान्यता के अनुसार ईश्वर के जन्म लेने के कारण समाज में पज्य आदरणीय प्रतिष्ठित और स्वरूप को निर्धारित-करते हुए श्री ज्ञानमुनिजी ने लिखा है --- यह ऊँचा समझा जाए, और दूसरा व्यक्ति सुशील, ज्ञानी और सतोगुणी
सत्य है कि जैन-दर्शन वैदिक दर्शन की तरह ईश्वर को जगत् का होने पर भी केवल अमुक कुल में जन्म लेने के कारण नीच और
कर्ता, भाग्यविधाता, कर्मफलदाता तथा संसार का सर्वेसर्वा नहीं तिरस्करणीय माना जाए, यह व्यवस्था समाजघातक है। जैन
की और मानता है। जैन-दर्शन का विश्वास है कि ईश्वर सत्यस्वरूप है, ज्ञान विचारणा में इस विषमता के लिए कोई स्थान नहीं है। वस्ततः स्वरूप है, आनन्दस्वरूप है, वीतराग हैं, सर्वज्ञ है, सर्वदर्शी है। सभी व्यक्ति जन्मतः समान हैं। उनमें धनी अथवा निर्धन उच्च उसका दृश्य या अदृश्य जगत् के विषय में प्रत्यक्ष या परोक्ष कोई अथवा निम्न का कोई भेद नहीं है। आचारांगसूत्र में स्पष्ट कहा
हस्तक्षेप नहीं है। वह जगत् का निर्माता नहीं है, भाग्यविधाता नहीं है, गया है कि साधनामार्ग का उपदेश सभी के लिए समान है। जो कर्मफल का प्रदाता नहीं है तथा वह अवतार लेकर मनुष्य या उपदेश एक धनवान या उच्चकुल के व्यक्ति के लिए है. वही किसी अन्य पशु आदि के रूप में संसार में आता भी नहीं है। उपदेश गरीब या निम्न कुलोत्पन्न व्यक्ति के लिए है। इस प्रकार इस प्रकार जैन-दर्शन और मानववाद (Humanism) दोनों जैन-धर्म-दर्शन ने जातिगत आधार पर ऊँचनीच का भेद अस्वीकार ही ईश्वर की सत्ता को स्वीकार न करके मानव अस्तित्व और कर मानव मात्र की समानता पर बल दिया।
उसके पुरुषार्थ में विश्वास करते हैं। दोनों ही मानते हैं कि मानव में ईश्वरत्व को प्राप्त करने की क्षमता निहित है।
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