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जैन दर्शन में मानववादी चिंतन
डॉ. विजयकुमार पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी....)
दर्शन-जगत् में दो परंपराएँ प्राचीनकाल से प्रवाहित होती स्पष्ट होता है कि मानव की प्रतिष्ठा तथा अधिकारों के लिए आ रही हैं-प्रकृतिवादी और निरपेक्षवादी। प्रकृतिवाद जो प्रकृति सम्मान, व्यक्ति के रूप में उसके मूल्य, लोगों का मंगलको ही एकमात्र अंतिम सत्य तथा स्वयंभू मानता है, वहीं कल्याण उनके चहुंमुखी विकास, मनुष्य के लिए सामाजिक निरपेक्षवाद, प्रकृति को एक अंतिम सत्य की बाह्य अभिव्यक्ति जीवन की परिस्थितियों के निर्माण के लिए चिंता को अभिव्यक्त मानता है। किन्तु मानववाद, जो मानव की हो ही एकमात्र महत्त्व करने वाले विचारों की समग्रता ही मानववाद का लक्ष्य है। देता है, को प्रकृतिवाद और निरपेक्षवाद का विरोधी माना जाता वस्तुतः मानव-स्वतंत्रता ही मानववाद है। जैसा कि जे. मैक्यूरी है। क्योंकि मानववाद का मुख्य उद्देश्य मानव अनुभूति की ने कहा है -- मनुष्य के ऊपर किसी भी उच्चतर सत्ता का व्याख्या करना है। यह मनुष्य को बौद्धिक जगत के केन्द्र में अस्तित्व नहीं देखा जाता है, इसलिए मनुष्य आवश्यक रूप से रखता है तथा विज्ञान को मानव जीवन से संबंधित करता है। अपने मूल्य की सृष्टि करता है, अपना मापदण्ड एवं लक्ष्य एक प्रकृतिवादी की दृष्टि में मानव अधिक से अधिक एक बनाता है, अपने मोक्ष के लिए कार्यक्रम बनाता है। मनुष्य की प्राकृतिक वस्तु है। उसका उतना ही महत्त्व हो सकता है जितना अपनी शक्ति एवं बुद्धि से परे कुछ भी नहीं है, इसलिए अपनी कि अन्य प्राकृतिक वस्तुओं का। इसी प्रकार एक निरपेक्षवादी सहायता के लिए अपने से बाहर नहीं देख सकता, इसी रूप में के अनुसार मानव भी अंतिम सत्य की अभिव्यक्ति मात्र है, उसे अपने या समाज के बाहर किसी भी निर्णय के प्रति समर्पण अपने स्वरूप तथा नियति का निर्माता नहीं। अत: स्वाभाविक है करने की आवश्यकता नहीं है। अत: मानव-स्वतंत्रता मानववाद कि मानववाद इन दोनों सिद्धान्तों से भिन्न होगा। बाल्डविन की का आधार है, क्योंकि ईश्वर या ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास डिक्शनरी ऑफ फिलॉसफी एण्ड साइकोलोजी में मानववाद करने पर मानव सुखी नहीं रह सकता। इतना ही नहीं ईश्वर या को परिभाषित करते हुए कहा गया है -- यह विचार विश्वास ईश्वर में विश्वास मनुष्य के उत्तरदायित्व को भी समाप्त कर देता अथवा कर्म संबंधी वह पद्धति है जो ईश्वर का परित्याग करके है। इससे स्पष्ट होता है कि मनुष्य ही अपने मूल्यों का निर्धारण मनुष्य तथा सांसारिक वस्तुओं पर ही केन्द्रित रहती है। पाश्चात्य करता है। कैपलेस्टन ने अपनी पुस्तक में दार्शनिक कोर्लिस लामोण्ट के अनुसार मानववाद समस्त मानव सर्वप्रथम अस्तित्व देखा जाता है और तभी वह अपने को जाति का विश्व-दर्शन है जो विभिन्न जातियों और संस्कृतियों के परिभाषित करता है। वह अपनी स्वतंत्र इच्छाओं द्वारा स्वयं को व्यक्तियों और उनकी असंख्य संतानों के दार्शनिक एवं नैतिक निर्मित करता है। वह सिर्फ उसी के लिए उत्तरदायी होता है मार्गदर्शन में समर्थ हो सकता है। ऐनसाइक्लोपीडिया ऑफ जिसका निर्माण वह स्वयं करता है। मनुष्य मूल्यों का सृष्टा भी ह्यूमिनिटीज (Encyclopaedia of Humanities) में लिखा है कि है और दृष्टा भी है। निरपेक्ष मूल्यों का कोई अस्तित्व नहीं है। मानवजीवन की समस्याओं को महत्त्व प्रदान करने की प्रवृत्ति सार्वभौम और आवश्यक नैतिक नियम का भी कोई अस्तित्व मानववाद है, विश्व में मानव को सर्वोत्तम स्थान देने की प्रवृत्ति नहीं है। मनुष्य अपने मूल्य का चयन स्वयं करता है। मानववाद है'। इसी में आगे कहा गया है कि यह वह विचारधारा उपर्यक्त मानववादी दार्शनिक परंपरा में जैन-दर्शन का है जो मानवीय मूल्यों और मानवीय आदर्शा का प्राधान्य स्वीकार भी नाम आता है। संपर्ण भारतीय दर्शन में एक जैन दर्शन ही है, करती है, यह वह विचारधारा है जो मानव प्रकृति के उस पक्ष
जो पूर्ण मानव स्वतंत्रता की बात करता है। यह वह दर्शन है जो पर बल देती है जो प्रेम, दया, सहयोग और प्रगति में व्यक्त होता
मानव कल्याण, मानव की कर्त्तव्य-परायणता, मानव-समता, है न कि कठोरता, स्वार्थ या आक्रमणशीलता पर। इससे यह
मानव की महत्ता, उसकी चारित्रिक शुद्धि, सर्वमंगल की भावना, "
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