Book Title: Jain Darshan me Karm Mimansa Author(s): Rajiv Prachandiya Publisher: Z_Lekhendrashekharvijayji_Abhinandan_Granth_012037.pdf View full book textPage 6
________________ मनोगुप्ति समस्त असत्य भीषणादि का परिहार अर्थात, मौनधारणा वचन गुप्ति औदारिकादि शरीर की क्रियाओ से निवृति काय गुप्ति कहलाती है इन गुप्तियों के बल से ही संसारिक कारणों से आत्मा का गोपन होता है। २-समिति जीवन की समस्त कियाओं को विवेक पूर्वक सम्यक प्रकार से पवृत्ति करते हुए जीवों की रक्षा करना समिति कहलाती है अर्थात समस्त रागादि भावों के त्याग के द्वारा आत्मा में लीन होना आत्मा का चिन्तन करना, तन्मय होना आदि रुप से जो गमन अर्थात परिषमन होना समिति कहलाता है। समिति का व्यवहार सयंम शुद्धि अर्थात मन की प्रशस्त्र एकाग्रता का कारण बनता है, जो व्यक्ति में जागरण लाता है जिसके अभाव में कोई भी जीव मोक्ष मार्ग में प्रवृत नही होता है। जैनागम में समिति के पाँच भेद निरुपित है। १- ईर्या समिति २- भाषा समिति ३ - एषणा समिति ४ - आदान - निक्षेपण समिति ५ - प्रतिष्ठापन्न समिति। ईर्या समिति में जीवों की रक्षार्थ सावधानी पूर्वक चलना-फिरना भाषा समिति में हित-मित-मधुर और सत्य से अनुप्राणित भाषा का बोलना, एषणा समिति में निर्दोष एवं शुद्ध आहार ग्रहण करना, आदान निक्षेपण समिति में वस्तुओं को सावधानी पूर्वक उठाना रखना, प्रतिष्ठापना समिति में मूल-भूत को ऐसे स्थान पर जहाँ जीवों का घात न हो, विसर्जित करना होता है, इनके परिपालन से असंयम रूप-परिणामों के निमित्त से जो कर्मो का आद्रव होता है, उसका संवर होता है। ३ - धर्म व्यक्ति और समष्टि की शक्ति के लिए धर्मजीवन का आवश्यक अंग है। व्यक्ति के भीतर अनन्त शक्तियाँ विद्यमान हैं किन्तु वे सबकी सब सुप्त-प्रसुप्त हैं, उन्हें यदि जगाना है, प्रकट करना है तो हमे धर्म की शरण में जाना ही पडेगा। आध्यात्मिक उन्नतिके लिए, सुख-शान्ति के लिए तथा बार-बार जन्म - मरण से मुक्त्यिर्थ धर्म ही एक मात्र साधन और उपाय है जिसे क्षमा मार्दव, आर्जव, शौच, संयम, तप, त्याग आकिंञ्चन्य और ब्रह्मचर्य रूपमें व्यक्त किया जाता है। वास्तव में धर्म का परम एवं चरम लक्ष्य मोक्ष है। धर्म ही नवीन कर्मो के बन्धनों को रोक कर पूर्वबद्ध कर्मो की निर्जरा में प्रमुख कारण होता है। इस लिए वह मोक्ष का साक्षात कारण/साधन/निमित्त बनता है। यह व्यक्ति को भोग से योग, संसार से मोक्ष की ओर ले जाने में प्रेरणास्फूर्ति प्रदान करता हैं। ४ - द्वादश-अनुप्रेक्षाएँ साधना में मन को साधा जाता है। उसे संसार की क्षणभगुरता का बोध कराया जाता है। रंग-बिरंगे आकर्षणों से पूर्णत: विरक्ति हेतु जैनागम में अनुप्रेक्षाओं का विधान बताया गया है जिनके बार-बार चिन्तवनसे कषाप-कलापों में लीन चित्त-वृत्तियाँ वीतरागता की ओर प्रेरित होती है। वास्तव में इन भावनाओं के आनेसे व्यक्ति शरीर व भोगोंसे निर्विण्ण होकर साम्यभाव में स्थिति पा सकता है। ये अनुप्रेक्षाएँ बारह प्रकार की होती हैं - अनित्य, अशरव, संसार, एकत्व, अन्यत्व, आशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्मभावना। अनित्य भावना में संसार की प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है, ऐसा विचार, अशरण भावना में ३०६ सत्य कमी कडवा नहीं होता मात्र जो लोग सत्य के आराधक नही होते वे ही सत्य से डरकर ऐसा कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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