Book Title: Jain Darshan me Hetulakshana
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf

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Page 4
________________ जैन दर्शन में हेतु लक्षण रूप्य निरास एवं अविनाभावित्व समर्थन रूप्य की निरर्थकता सिद्ध करते हुए जैन दार्शनिकों ने एक उदाहरण प्रस्तुत किया है-"गर्भस्थ मैत्रीतनय श्याम वर्ण होगा, मैत्री का पुत्र होने से, उसके अन्य पुत्रों के समान"। उस उदाहरण में विद्यमान "मैत्रीपुत्रत्वात्" हेतु गर्भस्थ पुत्र पक्ष में विद्यमान है। मैत्री के अन्य पुत्र रूप सपक्ष में विद्यमान हैं तथा अन्य स्त्री के गौरवर्ण पुत्र रूप विपक्ष में विद्यमान नहीं है। इस प्रकार इस हेतु में पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व एवं विपक्षासत्त्व तीनों रूप विद्यमान हैं तथापि यह साध्य के साथ अविनाभावी नहीं होने के कारण सहेतु नहीं है, हेत्वाभास है।' बौद्ध दार्शनिक भी इस हेतु को साध्य के साथ प्रतिबंध अथवा अविनाभाव युक्त न होने के कारण हेत्वाभास मानते हैं जैसा कि धर्मोत्तर (७वीं-८वीं शताब्दी ) के कथन से ज्ञात होता है- "तथा च सति स श्यामः तत्पुत्रत्वाद् दृष्यमानपुत्रवद् इति तत्पुत्रत्वं हेतुः स्यात् । तस्मान् नियमवतोरेवान्वयव्यतिरेकयोः प्रयोगः कर्तव्यो येन प्रतिबन्धो गम्येत साधनस्य साधनेन ।' इसीलिये धर्मकीर्ति (७वीं शती) ने अविनाभाव के द्योतक “एव" शब्द का प्रयोग किया है"विपक्षे चासत्त्वमेव निश्चितम् ।" हेतुबिन्दु प्रकरण में भी धर्मकीर्ति ने अविनाभाव नियम के अभाव में हेतुओं को हेत्वाभास कहा है। यह बात भिन्न है कि ये पक्षधर्मत्व आदि तीन रूपों में ही “एव" का प्रयोग कर त्रिविध हेतु की साध्य के साथ अविनाभाविता स्वीकार करते हैं। न्यायदार्शनिक भी "तत्पुत्रत्व" हेतु को औपाधिक संबंध के कारण हेत्वाभास मानते हैं। ये साध्य के साथ लिंग का स्वाभाविक सम्बन्ध होने पर ही लिंग को साध्य का गमक सिद्ध करते हैं। स्वाभाविक संबंध का अर्थ है व्याप्ति । और वह व्याप्ति जैनदर्शन में प्रस्तुत "अविनाभाव" का समानार्थक शब्द है । जयन्तभट्ट ने तो स्पष्ट शब्दों में पंच लक्षण हेतु में अविनाभाव का समापन कहा है-"एतेषु पंचलक्षणेषु अविनाभावः समाप्यते।"5 १. जैसा कि कहा है—स श्यामस्तत्पुत्रत्वाद् दृष्टा श्यामा यथेतरे । इति लक्षणो हेतुर्न निश्चित्य प्रवर्तते ॥ तत्त्वसंग्रह (शांतरक्षित ) कारिका १३६९-जैन दार्शनिक पात्रस्वामी के मत के रूप में प्रस्तुत । __ न्यायबिन्दु टीका २-५ की व्याख्या, पृ० ११०, साहित्य भंडार, मेरठ प्रकाशन पक्षधर्मस्तदंशेन व्याप्तो हेतुस्त्रिधैव सः । अविनाभावनियमात् हेत्वाभासास्ततोऽपरे ।।-हेतुबिन्दु प्रकरण पृ० ५२ एवं प्रमाणवार्तिक ३.१ स्वाभाविकश्च सम्बन्धो व्याप्तिः, तर्कभाषा अनुमाननिरूपण, पृ० ७६ ( विश्वेश्वर सिद्धांतशिरोमणि संपादित ), चौखम्भा संस्कृत संस्थान, १९७७ ई० सं० वाचस्पतिमिश्र ने भी न्यायवार्तिकतात्पर्य टीका में कहा है-यद्यप्यविनाभावः पंचषु चतुर्ष वा लिंगस्य समाप्यत इत्यविनाभावेनैव सर्वाणि लिंगरूपाणि संगृह्यन्ते-न्यायवार्तिकतात्पर्य टीका १।१।५, पृ० १४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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