Book Title: Jain Darshan me Hetulakshana
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf

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Page 6
________________ जैन दर्शन में हेतु लक्षण अन्यथानुपपन्नत्वं रूपैः किं पंचभिः कृतम् । नान्यथानुपपन्नत्वं रूपः किं पंचभिः कृतम् ॥' यदि साध्य के साथ हेतु का अन्यथानुपपन्नत्व निश्चित है तो पाँचरूप्य के अभाव में भी कृत्तिकोदय हेतु शकटोदय साध्य का गमक हो जाता है तथा अन्यथानुपपन्नत्व नहीं है तो सत्त्वात् हेतु के समान पाँचरूप्य भी निरर्थक है । जैन हेतु लक्षण निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि साध्य के साथ अविनाभावित्व हुए बिना हेतु साध्य का गमक नहीं होता। हेतु को परिभाषित करते हुए जैन दार्शनिकों ने सर्वत्र यही प्रतिपादित किया है । सिद्धसेन (५वीं शती) रचित न्यायावतार में कहा गया है- अन्यथानुपपन्नत्वं हेतोलक्षणमीरितम्, अर्थात् हेतु का लक्षण अन्यथानुपपन्नत्व है । प्रसिद्ध जैन नैयायिक अकलंक (८वीं शती) ने कहा है-“साधनं प्रकृताऽभावेऽनुपपन्नत्वम्" ३ अर्थात् साध्य के अभाव में हेतु का होना अनुपपन्न है। वे स्वयं प्रमाणसंग्रह की वृत्ति में इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं-“साध्यार्थाऽ सम्भवाभावनियमनिश्चयैकलक्षणो हेतुः" अर्थात् साध्य अर्थ के अभाव में जिसका अभाव होना निश्चित है ऐसा एक लक्षण वाला हेतु है। भद्र कुमारनन्दि के हेतु लक्षण को विद्यानन्द ने उद्धत किया है--अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणं लिंगमंग्यते । हेतु लक्षण की यही सरणि माणिक्यनन्दि (११वीं शती) एवं देवसूरि (१२वीं शती) द्वारा भी अपनायी गयी है किन्तु वे अकलंक की प्रमाणसंग्रह वृत्ति की भाँति निश्चय शब्द का भी प्रयोग करते हैं। माणिक्यनन्दि के शब्दों में साध्य के साथ जिसका अविनाभावित्व निश्चित हो वह हेतु है तथा देवसूरि के शब्दों में निश्चित अन्यथानुपपत्ति रूप एक लक्षण वाला हेतु है। हेतुलक्षण का हेतु भेदों में सामंजस्य-- जैन दार्शनिकों ने हेतु के अनेक भेद प्रतिपादित किये हैं। माणिक्यनन्दि एवं देवसूरि १. प्रमाणपरीक्षा; वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट प्रकाशन, पृ० ४९ विद्यानन्द ने पांचरूप्य हेतु का खंडन करने हेतु स श्यामस्तत्पुत्रत्वादितस्तत्पुत्रवत" उदाहरण दिया है जो अन्य पात्रस्वामी आदि दार्शनिकों ने त्रैरूप्य के खंडन में प्रस्तुत किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि पात्रस्वामी के समय तक पांचरूप्य परम्परा को विशेष स्थान नहीं मिला था, अत: उनके द्वारा पांचरूप्य परम्परा का खंडन नहीं किया गया। यदि किया जाता तो त्रैरूप्य खंडन के समान वह भी उद्धृत होता। न्यायावतार, २२ प्रमाणसंग्रहकारिका-२१ एवं न्यायविनिश्चयकारिका, २६९ ( दोनों अकलंकग्रन्थत्रय में हैं ) ४. प्रमाणपरीक्षा, पृ० ४३, ( वीर सेवा मंदिर ट्रस्ट ) ५. साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः, परीक्षामुख, ३।११ ६. निश्चितान्यथानुपपत्येकलक्षणो हेतु:----प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३।११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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