Book Title: Jain Darshan me Hetulakshana
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 3
________________ ६२ धर्मचंद जैन किन्तु न्यायदर्शन में पंचलक्षण हेतु को स्थान मिलने के पश्चात् द्विलक्षण एवं त्रिलक्षण परम्परा लुप्त सी हो गयी । यही नहीं अपितु बौद्धदर्शन सम्मत वैरूप्य में अव्याप्ति दोष दिखलाकर उसका खंडन भी किया गया है ।" न्यायदार्शनिकों का मानना है कि हेतु प्रत्यक्ष एवं आगम से बाधित भी नहीं होना चाहिए तथा उसका कोई प्रतिपक्षी हेतु भी नहीं होना चाहिये । इन पाँच रूपों का प्रतिपादन वे पाँच प्रकार के हेत्वाभावों का निराकरण करने हेतु करते हैं । बौद्धों के द्वारा सम्मत हेत्वाभासों के अतिरिक्त ये कालात्ययापदिष्ट हेत्वाभास का अबाधितविषयत्व द्वारा तथा प्रकरण हेत्वाभास का असत्प्रतिपक्षत्व द्वारा निराकरण करते हैं । पंचलक्षण हेतु से ही परोक्ष साध्य का ज्ञान होता है, ऐसा जयन्तभट्ट ( ९वीं शताब्दी ) ने "न्यायमंजरी" में प्रतिपादित करते हुए कहा है पंचलक्षणकाल्लिंगाद् गृहीतान्नियमस्मृतेः । परोक्षे लिंगिनि ज्ञानमनुमानं प्रचक्षते ॥ अर्थात् पंचलक्षण हेतु के गृहीत होने से व्याप्ति नियम की स्मृति होती है तथा उससे जो परोक्ष लिंगी अर्थात् साध्य का ज्ञान होता है उसे अनुमान कहते हैं । न्यायदर्शन में हेतु के तीन प्रकार हैं-अन्वयव्यतिरेकी, केवलान्वयी एवं केवलव्यतिरेकी । उनमें मात्र अन्वयव्यतिरेकी हेतु में ही पंचरूप होते हैं । केवलान्वयी एवं केवलव्यतिरेकी हेतु में चार रूप ही पाये जाते हैं क्योंकि केवलान्वयी हेतु में विपक्षासत्त्व तथा केवलव्यतिरेकी हेतु में सपक्षसत्त्व रूप उपलब्ध नहीं होते । मीमांसक मत-मीमांसादर्शन में त्रैरूप्य, पांचरूप्य आदि का प्रतिपादन नहीं किया गया । वहाँ तो हेतु को नियाम्य ( व्याप्य ) तथा साध्य को नियामक ( व्यापक ) कहकर उनमें व्याप्ति का प्रतिपादन किया गया है, जिससे दार्शनिकों का कोई विरोध प्रतीत नहीं होता है । जैन मान्यता जैनदर्शन में हेतु के स्वरूप का निरूपण सर्वथा अनूठा है । इसमें हेतु का एक लक्षण अंगीकार किया गया है और वह है, उसका साध्य के साथ निश्चित अविनाभाव । १ जैन दार्शनिकों की मान्यता है कि साध्य के साथ अविनाभाव अथवा अन्यथानुपपत्ति ही हेतु का एकमात्र लक्षण है । यदि हेतु में अविनाभावित्व है तो वह त्रैरूप्य एवं पांचरूप्य के अभाव में भी साध्य का गमक होता है और यदि उसमें अविनाभावित्व नहीं है तो वैरूप्य एवं पांच रूपय के होने पर भी साध्य का गमक नहीं होता । १. २. ३. उदयन एवं जयन्तभट्ट की रचनाओं में देखा जा सकता है स्याद्वादरत्नाकर, भाग ३, पृ० ५२३ पर उद्धृत साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतु:, परीक्षामुख ३।११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8