Book Title: Jain Darshan me Anuman Paribhasha Author(s): Darbarilal Kothiya Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf View full book textPage 2
________________ व्याप्ति - निश्चय से व्यवहित हैं । अतः लिंगदर्शन, व्याप्तिस्मरण और पक्षधर्मताज्ञान व्याप्तिनिश्चय से व्यवहित होने से अनुमान के साक्षात् पूर्ववर्ती नहीं हैं। यद्यपि पारम्पर्य से उन्हें भी अनुमान का जनक माना जा सकता है। पर अनुमान का अव्यवहित पूर्ववर्ती ज्ञान व्याप्ति निश्चय है, क्योंकि उसके अव्यवहित उत्तरकाल में नियम से अनुमान आत्मलाभ करता है । अतः व्याप्तिनिश्चय ही अनुमान का पूर्ववर्ती ज्ञान है। जैन तार्किक बारिशज भी यही लिखते हैं . 'अनु व्याप्तिनिर्णयस्य पश्चाद् भावि मानमनु मानम् ।' व्याप्ति निर्णय के पश्चात् होनेवाले मान-प्रमाण को अनुमान कहते हैं। वात्स्यायन' अनुमान शब्द की निरुक्ति इस प्रकार बतलाते हैं-मितेन लिगेन लिंगिनोऽस्य पश्चात्मानमनुमानम् - प्रत्यक्ष प्रमाण से ज्ञात लिंग से लगी- अर्थ के अनुपात् उत्पन्न होनेवाले ज्ञान को अनुमान कहते हैं। तात्पर्य यह कि विज्ञान के पश्चात् जो लिंगी -- साध्य का ज्ञान होता है वह अनु मान है । वे एक दूसरे स्थल पर और कहते हैं कि' स्मृत्या लिंग दर्शनेन चाप्रत्यक्षोऽनुमीयते । "लिंगलिंगी सम्बन्ध स्मृति और लिंगदर्शन के द्वारा अप्रत्यक्ष अयं का अनुमान किया जाता है। इस प्रकार वात्स्यायन का अभिप्राय 'अनु' शब्द से सम्बन्ध स्मरण और लिंग दर्शन के पश्चात् अर्थ को ग्रहण करने का प्रतीत होता है । न्यायवार्तिककार उद्योतकर' का मत है कि 'यस्मालिग परामर्गादिनन्तरं शेषाप्रतिपत्तिरिति । तस्मालिंग परामर्शोन्याय्य इति । यतः लिंग परामर्श के अनन्तर शेषार्थ (अनुमेयार्थ ) का ज्ञान होता है, अतः 3. 2 स्यायविनिश्चय विवरण, द्वि. भा. २०१ ११५, पृ. ४५ 6. आप्त मी. का. ५ का. १६, १७, १०६ आदि 10. आ. मी. का. 7 स. पू. २०१ Jain Education International लिंग परामर्श को अनुमान मानना न्याययुक्त है। इस तरह उद्योतकर के मतानुसार लिंग परामर्श वह ज्ञान है। जिसके पश्चात् अनुमिति उत्पन्न होती है। किन्तु तथ्य यह है कि लिंगदर्शन आदि व्याप्तिनिश्चय से व्यवहित हैं । अतः व्याप्तिज्ञान ही अनुमान से अव्यवहित पूर्ववर्ती है। अनुमान की परिभाषा अनुमान शब्द की निरक्ति के बाद अब देखना है कि उपलब्ध जैन तर्कग्रन्थों में अनुमान की परिभाषा क्या की गयी है ? स्वामी समन्तमद् ने आप्तमीमांसा में 'अनुमेयत्व' हेतु मे सर्वज्ञ की सिद्धि की है। आगे अनेक स्थलों पर 'स्वरूपादिचतुष्टयात्', 'विशेषमत्वात्" आदि अनेक हेतुओं को दिया है। और उनसे अनेकान्तात्मक वस्तु की व्यवस्था तथा स्याद्वाद की स्थापना की है। इससे प्रतीत होता है कि समन्तभद्र के काल में जैन दर्शन में विवादग्रस्त एवं अप्रत्यक्ष पदार्थों की सिद्धि अनुमान से की जाने लगी थी। जिन उपादानों से अनुमान निष्पक्ष एवं सम्पूर्ण होता है उन उपादानों का उल्लेख भी उनके द्वारा आप्तमीमांसा में बहुलतया हुआ है। उदाहरणार्थ हेतु, साध्य प्रतिज्ञा, सपर्मा, अविनरभाव, सपक्ष, साधर्म्य, वैधर्म्य, दृष्टान्त जैसे अनुमानोपकरणों का निर्देश इसमें किया गया है। पर परिभाषा ग्रन्थ न होने से उनकी परिभाषाएँ इसमें नहीं हैं। यही कारण है कि अनुमान की परिभाषा इसमें उपलब्ध नहीं है । एक स्थल पर हेतु ( नय) का लक्षण 10 अवश्य निबद्ध है, जिसमें अन्यथानुपपत्ति विशिष्ट त्रिलक्षण हेतु को साध्य का प्रकाशक कहा है, केवल त्रिलक्षण को नहीं। अकलंक" और विद्यानन्द द्वारा प्रस्तुत उसके न्यायभाष्य १।११३ ; 4. वही, १११।५ वही, का. १५; 8. वही, का. १७, १८; १०६ ; 11. अष्ट श. अष्ठ स. पू. २८६ ; * For Private & Personal Use Only 5. न्या. वा. 9. वही, 12. अष्ट www.jainelibrary.orgPage Navigation
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