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जैन दर्शन
प्रत्यक्ष की ही तरह प्रमाण एवं अर्थसिद्धि का सवल साधन माना है।
यों तो अनुमान का भारतीय दर्शनों में विस्तृत विवेचन उपलब्ध है और संख्याबद्ध ग्रन्थों का निर्माण हुआ है, किन्तु यहाँ हम उसके मात्र स्वरूप पर विमर्श प्रस्तुत करेंगे।
अनुमान परिभाषा
अनुमान शब्द की निरुक्ति
अनु+मान इन दो शब्दों से अनुमान शब्द निष्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है पश्चाद्वर्ती ज्ञान, और ऐसा ज्ञान
ही अनुमान है। डॉ. दरबारी लाल कोठिया
प्रश्न उठता है कि प्रत्यक्ष को छोड़कर शेष सभी (स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, चिन्ता आदि) ज्ञान प्रत्यक्ष के पश्चात् ही होते हैं। ऐसी स्थिति में ये सव ज्ञान भी अनुमान कहे जायेंगे । अतः अनुमान से पूर्व वह कौनसा
ज्ञान विवक्षित है, जिसके पश्चात् होने वाले ज्ञान को भारतीय दर्शनों में प्रत्यक्ष की तरह अनुमान को अनुमान कहा है ? भी अर्थसिद्धि का महत्वपूर्ण साधन माना गया है। सम्बद्ध और वर्तमान, आसन्न और स्थूल पदार्थों का इसका उत्तर यह है कि अनुमान से अव्यवहित ज्ञान इन्द्रिय प्रत्यक्ष से किया जा सकता है। पर पूर्ववर्ती वह ज्ञान विशेष है, जिसके अव्यवहित उत्तरअसम्बद्ध और अवर्तमान, अतीत-अनागत तथा दूर . काल में अनुमान उत्पन्न होता है । वह ज्ञान-विशेष है, और सूक्ष्म अर्थों का ज्ञान उससे सम्भव नहीं है, क्योंकि व्याप्ति-निर्णय (तर्क-ऊहा-चिन्ता) । उसके अनन्तर उक्त प्रकार के पदार्थों को जानने की क्षमता इन्द्रियों में नियम से अनुमान होता है। लिंगदर्शन, व्याप्तिस्मरण नहीं है। अतः ऐसे पदार्थों का ज्ञान अनुमान द्वारा और पक्षधमंताज्ञान इनमें से कोई भी अनुमान का किया जाता है। इसे चार्वाक दर्शन को छोड़कर, शेष अव्यवहित पूर्ववर्ती नहीं है । लिंगदर्शन व्याप्तिस्मरण से, सभी भारतीय दर्शनों ने स्वीकार किया है और उसे व्याप्तिस्मरण पक्षधर्मताज्ञान से और पक्षधर्मताज्ञान
1. व्याप्ति विशिष्टपक्षधर्मताज्ञान जन्म ज्ञान मनुमितिः । तत्करणमनुमानम् ।
-- गंगेश उपाध्याय, तत्त्व चि., अनु., जागदीशी, पृ. 13 ।
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व्याप्ति - निश्चय से व्यवहित हैं । अतः लिंगदर्शन, व्याप्तिस्मरण और पक्षधर्मताज्ञान व्याप्तिनिश्चय से व्यवहित होने से अनुमान के साक्षात् पूर्ववर्ती नहीं हैं। यद्यपि पारम्पर्य से उन्हें भी अनुमान का जनक माना जा सकता है। पर अनुमान का अव्यवहित पूर्ववर्ती ज्ञान व्याप्ति निश्चय है, क्योंकि उसके अव्यवहित उत्तरकाल में नियम से अनुमान आत्मलाभ करता है । अतः व्याप्तिनिश्चय ही अनुमान का पूर्ववर्ती ज्ञान है। जैन तार्किक बारिशज भी यही लिखते हैं
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'अनु व्याप्तिनिर्णयस्य पश्चाद् भावि मानमनु मानम् ।'
व्याप्ति निर्णय के पश्चात् होनेवाले मान-प्रमाण को अनुमान कहते हैं। वात्स्यायन' अनुमान शब्द की निरुक्ति इस प्रकार बतलाते हैं-मितेन लिगेन लिंगिनोऽस्य पश्चात्मानमनुमानम् - प्रत्यक्ष प्रमाण से ज्ञात लिंग से लगी- अर्थ के अनुपात् उत्पन्न होनेवाले ज्ञान को अनुमान कहते हैं। तात्पर्य यह कि विज्ञान के पश्चात् जो लिंगी -- साध्य का ज्ञान होता है वह अनु मान है । वे एक दूसरे स्थल पर और कहते हैं कि' स्मृत्या लिंग दर्शनेन चाप्रत्यक्षोऽनुमीयते । "लिंगलिंगी सम्बन्ध स्मृति और लिंगदर्शन के द्वारा अप्रत्यक्ष अयं का अनुमान किया जाता है। इस प्रकार वात्स्यायन का अभिप्राय 'अनु' शब्द से सम्बन्ध स्मरण और लिंग दर्शन के पश्चात् अर्थ को ग्रहण करने का प्रतीत होता है । न्यायवार्तिककार उद्योतकर' का मत है कि 'यस्मालिग परामर्गादिनन्तरं शेषाप्रतिपत्तिरिति । तस्मालिंग परामर्शोन्याय्य इति । यतः लिंग परामर्श के अनन्तर शेषार्थ (अनुमेयार्थ ) का ज्ञान होता है, अतः
3.
2 स्यायविनिश्चय विवरण, द्वि. भा. २०१ ११५, पृ. ४५ 6. आप्त मी. का. ५ का. १६, १७, १०६ आदि 10. आ. मी. का.
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स. पू. २०१
लिंग परामर्श को अनुमान मानना न्याययुक्त है। इस तरह उद्योतकर के मतानुसार लिंग परामर्श वह ज्ञान है। जिसके पश्चात् अनुमिति उत्पन्न होती है। किन्तु तथ्य यह है कि लिंगदर्शन आदि व्याप्तिनिश्चय से व्यवहित हैं । अतः व्याप्तिज्ञान ही अनुमान से अव्यवहित पूर्ववर्ती है।
अनुमान की परिभाषा
अनुमान शब्द की निरक्ति के बाद अब देखना है कि उपलब्ध जैन तर्कग्रन्थों में अनुमान की परिभाषा क्या की गयी है ? स्वामी समन्तमद् ने आप्तमीमांसा में 'अनुमेयत्व' हेतु मे सर्वज्ञ की सिद्धि की है। आगे अनेक स्थलों पर 'स्वरूपादिचतुष्टयात्', 'विशेषमत्वात्" आदि अनेक हेतुओं को दिया है। और उनसे अनेकान्तात्मक वस्तु की व्यवस्था तथा स्याद्वाद की स्थापना की है। इससे प्रतीत होता है कि समन्तभद्र के काल में जैन दर्शन में विवादग्रस्त एवं अप्रत्यक्ष पदार्थों की सिद्धि अनुमान से की जाने लगी थी। जिन उपादानों से अनुमान निष्पक्ष एवं सम्पूर्ण होता है उन उपादानों का उल्लेख भी उनके द्वारा आप्तमीमांसा में बहुलतया हुआ है। उदाहरणार्थ हेतु, साध्य प्रतिज्ञा, सपर्मा, अविनरभाव, सपक्ष, साधर्म्य, वैधर्म्य, दृष्टान्त जैसे अनुमानोपकरणों का निर्देश इसमें किया गया है। पर परिभाषा ग्रन्थ न होने से उनकी परिभाषाएँ इसमें नहीं हैं। यही कारण है कि अनुमान की परिभाषा इसमें उपलब्ध नहीं है । एक स्थल पर हेतु ( नय) का लक्षण 10 अवश्य निबद्ध है, जिसमें अन्यथानुपपत्ति विशिष्ट त्रिलक्षण हेतु को साध्य का प्रकाशक कहा है, केवल त्रिलक्षण को नहीं। अकलंक" और विद्यानन्द द्वारा प्रस्तुत उसके
न्यायभाष्य १।११३ ; 4. वही, १११।५ वही, का. १५; 8. वही, का. १७, १८; १०६ ; 11. अष्ट श. अष्ठ स. पू. २८६ ;
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5. न्या. वा.
9. वही,
12. अष्ट
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व्याख्यानों से भी यही अवगत होता है । आशय यह कि निश्चय के आधार पर ही होता है। जब तक साधन आप्तमीमांसा के इस सन्दर्भ से इतना ही ज्ञात होता के साध्याविनाभाव का निश्चय न होगा तब तक उससे है कि समन्तभद्र को अन्यथानुपपन्नत्वविशिष्ट विलक्षण साध्य का निर्णय नहीं हो सकता। हेतु से होनेवाला साध्यज्ञान अनुमान इष्ट रहा है।
यहाँ प्रश्न है15 कि इस अनुमान-परिभाषा से ऐसा सिद्ध सेन ने स्पष्ट शब्दों में अनुमान लक्षण
प्रतीत होता है कि जैन परम्परा में साधन को ही अनुदिया है
मान में कारण माना गया है, साधन के ज्ञान को नहीं?
इसका समाधान यह है कि16 उक्त 'साधन' पद से 'निश्चयसाध्याविनाभुनो लिंगात् साध्यनिश्चद्दायकं स्मृतम्।
पथ प्राप्त साधन' अर्थ विवक्षित है, क्योंकि जिस धूमादि अनुमान तदभ्रान्तं प्रमाणत्वात् समक्षवत् ।।
___ साधन का साध्याविनामावित्वरूप से निश्चय नहीं है
वह साधन नहीं कहलाता । अन्यथा अज्ञायमान धूमादि साध्य के बिना न होनेवाले लिंग मे जो माध्य का लिंग से सुप्त तथा अगृहीत धूमादि लिंगवालों को भी निश्चायक ज्ञान होता है वह अनुमान है। इस अनमान बह्नि आदि का ज्ञान हो जाएगा । अतः 'साधन' पद से लक्षण में समन्तभद्र का हेतुलक्षणगत 'अविरोधतः' पद, 'अविनाभावरूप से निर्णीत साधन' अर्थ अभिप्रेत है, जो अन्यथानुपपत्ति-अविनाभाव का बोधक है, बीज रूप केवल साधन नहीं। न्यायविनिश्चय के विवरणकार में रहा हो, तो आश्चर्य नहीं है। .
आचार्य वादिराज ने भी उसका यही विवरण किया
है । यथाअकलंक ने न्यायविनिश्चय और लधीयस्त्रय दोनों
'साधनं साध्याविनाभावनियमनिर्णयकलक्षणं में अनुमान की परिभाषा अंकित की है। न्यायविनिश्चय की अनुमान-परिभाषा निम्न प्रकार है--
वक्ष्यमाणं लिंगम् ।
साधन वह है जिसके साध्याविनाभावरूप नियम साधनात्साध्य विज्ञान मनुमानं तदत्यये ।।
का निश्चय है । इसी को लिंग (लीनमप्रत्यक्षमर्थ गमसाधन (हेतु) से जो साध्य (अनुमेय) का विशिष्ट यति)--छिपे हए अप्रत्यक्ष अर्थ का अवगम कराने वाला (नियत) ज्ञान होता है वह अनुमान है ।
भी कहा है।
अकलंकदेव स्वयं उक्त अर्थ की प्रकाशिका एक अकलंक का यह अनुमान-लक्षण अत्यन्त सरल और
दूसरी अनुमान-परिभाषा लघीयस्त्रय में निम्न प्रकार सुगम है। परवर्ती विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि, वादिराज, प्रभाचन्द्र. हेमचन्द्र, धर्मभषण प्रभति ताकिकों ने इसी को
करते हैंअपनाया है। स्मरणीय है कि जो साधन से साध्य का लिंगात्साध्याविनाभावाभिनिबोधकलक्षणात् । नियत ज्ञान होता है वह साधनगत अविनाभाव के लिंगिधीरनुमान तत्फलं दानादिबुद्धयः ।।
13. न्यायावतार का. ५; 14. न्यायविनिश्चय. द्वि. भा. २१२; 15. 'ननु भवतांमते साधनमेवानुमाने हेतुर्नतु साधन ज्ञानं साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानमिति ।'-धर्म भूषण न्या. दी. पृ. ६७; 16. 'न, 'साधनात्' इत्य निश्चयपथ प्राप्ताद्धमादेरिति विवक्षणात्'। वही, पृ. ६७; 17. वादिराज, न्या. वि. वि. द्वि. भा. २११, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली; 18. अकलंकदेव लधीयस्त्रय का. १२ ।
न साधनात
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साध्य के बिना न होने का जिसमें निश्चय है, ऐसे विद्यानन्द अनुमान के इस लक्षण का समर्थन करते लिंग से जो लिंगी (साध्य अर्थ) का ज्ञान होता है उसे हुए एक महत्वपूर्ण युक्ति उपस्थित करते हैं । वे कहते अनुमान कहते हैं । हान, उपादान और उपेक्षा का ज्ञान हैं कि अनुमान के आत्मलाभ के लिए उक्त प्रकार का होना उसका फल है।
साधन और उक्त प्रकार का साध्य आवश्यक ही नहीं,
अनिवार्य है। यदि उक्त प्रकार का साधन न हो तो इस अनुमानलक्षण से स्पष्ट है कि साध्य का केवल साध्य का ज्ञान अनुमान प्रतीत नहीं होता। इसी गमक वही साधन अथवा लिंग हो सकता है जिसके तरह उक्त प्रकार का साध्य न हो, तो केवल उक्त अविनाभाव का निश्चय है। यदि उसमें अविनाभाव का प्रकार का साधनज्ञान भी अनुमान ज्ञात नहीं होता । निश्चय नहीं है तो वह साधन नहीं है। भले ही आशय यह है कि अनुमान के मुख्य दो उपादान हैंउसमें तीन रूप और पाँच रूप भी विद्यमान हों। जैसे साधनज्ञान और साध्यज्ञान । इस दोनों की समग्रता 'स श्याम: तत्पुत्रत्वात्, इतर पुत्रवत्', 'वज्र लोहतेख्यं होने पर ही अनुमान सम्पन्न होता है । पार्थिवत्वात्, काष्ठवत्' इत्यादि हेतु तीन रूपों और पाँच रूपों से सम्पन्न होने पर भी अबिनाभाव के अभाव
आचार्य माणिक्यनन्दि अकलंक के उक्त अनुमानसे सद्धत नहीं हैं, अपितु हेत्वाभास हैं और इसी से वे लक्षण को स्त्र का रूप देते हैं और उसे स्पष्ट करने के अपने साध्यों के गमक-अनुमापक नहीं हैं। इस सम्बन्ध लिए हेतु का भी लक्षण प्रस्तुत करते हैं। यथामें और विशेष विचार किया जा सकता है।
साधनात्साध्य विज्ञानमनुमानम् । विद्यानन्द ने अकलंकदेव का अनुमानलक्षण आदृत
साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः 124 किया है और विस्तारपूर्वक उसका समर्थन किया है।
हेमचन्द्राचार्य ने भी माणिक्यनन्दि की तरह यथा
अकलंक की ही अनुमान-परिभाषा अक्षरशः स्वीकार साधनात्साध्य विज्ञानमनुमान विदुर्बुमाः । की है और उसे उन्हीं की भाँति सूत्र रूप प्रदान
किया है। साध्याभावासम्भवनियमलक्षणात साधनादेव शक्याभिप्रेताप्रसिद्धत्वलक्षणस्य 'साध्यस्यैव यद्विज्ञानं
न्यायदीपिकाकार धर्मभूषण ने भी अकलंक का तदनुमानं आचार्या विदुः ।।
न्यायविनिश्चयोक्त अनुमान-लक्षण प्रस्तुत करके उसका
विशदीकरण किया है । इसके अतिरिक्त उन्होंने तात्पर्य यह कि जिसका साध्य के अभाव में न होने । उद्योतकर द्वारा उपज्ञ तथा वाचस्पति आदि द्वारा का नियम है ऐसे साधन होनेवाला जो शक्य (अबा- समथित 'लिंग परामर्शोऽनुमानम्'28 इस अनुमानलक्षण धित), अभिप्रेत (इष्ट) और अप्रसिद्ध साध्य का विज्ञान की समीक्षा भी उपस्थित की है। उनका कहना है कि है उसे आचार्य (अकलङ्क देव) ने अनुमान कहा है। यदि लिंगपरामर्श (लिंगज्ञान-लिंगदर्शन) को अनुमान
19. विद्यानन्द, त. श्लो. १।१३।२००, पृ. २०६ ; 20. वही, १।१३।१२०, पृ. १६७ ; 21, 22. वही, १।१३।१२०, पृ. १६७; 23. मणिक्यनन्दि, परीक्षामुख ३।१४; 24. वही, ३।१५; 25. प्रमा. मी. ११२।७ पृ. ३८ ; 26. धर्मभूषण न्याय दी. पृ. ६५, ६७ वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली ; 27. वही, पृ. ६६ ; 28. उद्योतकर, न्याय वा. १।१।५, पृ. ४५।
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माना जाय तो उससे साध्य (अनुमेय ) का ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि लिंगपरामर्श का अर्थ लिंगज्ञान है और लिंगज्ञान केवल लिंग-माधन सम्बन्धी अज्ञान को ही दूर करने में समर्थ है, साध्य के अज्ञान को नहीं । यथार्थ में लिंग में होनेवाले व्याप्तिविशिष्ट तथा पक्षधर्मता के ज्ञान को परामर्श कहा गया है 'व्याप्तिविशिष्ट पक्षधर्मता ज्ञानं परामर्श:' । अतः लिंगपरामर्श इतना ही ज्ञान करा सकता है कि धूमादि लिंग अग्नि आदि साध्यों के सहचारी हैं और वे पर्वत आदि (पक्ष) में हैं और इस तरह लिंगपरामर्श मात्र लिंग सम्बन्धी अज्ञान का निराकरण करता है एवं लिंग के वैशिष्ठ्य को प्रकट करता है, अनुमेय ( साध्य ) सम्बन्धी अज्ञान का निरास कर उसका ज्ञान कराने में वह असमर्थ है । अतएवं लिंगपरामर्श अनुमान की सामग्री तो हो सकता है, पर स्वयं अनुमान नहीं । अनुमान का अर्थ है अनुमेय सम्बन्धी अज्ञान की निवृत्तिपूर्वक अनुमेयार्थ का ज्ञान । इसलिए साध्यसम्बन्धी अज्ञान की निवृत्तिरूप अनु मिति में साधकतम करण तो साक्षात् साध्यज्ञान ही हो सकता है । अतः साध्यज्ञान ही अनुमान है, लिंगपरामर्श नहीं । यहाँ धर्मभूषण इतना और स्पष्ट करते हैं कि जिस प्रकार धारणा नामक अनुभव स्मृति में, तात्कालिक अनुभव और स्मृति दोनों प्रत्यभिज्ञान में तथा साध्य एवं साधन विषयक स्मरण, प्रत्यभिज्ञान और अनुभव तर्क में कारण माने जाते हैं, उसी प्रकार व्याप्तिस्मरण आदि सहित लिंगज्ञान ( लिंगारामर्श) अनुमान की उत्पत्ति में कारण है।
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यहां ज्ञातव्य है कि लिंगपरामर्श को अनुमान की परिभाषा मानने में जो आपत्ति धर्मभूषण ने प्रदर्शित की है वह उद्योतकर के भी ध्यान में रही जान पड़ती है अथवा उनके समक्ष भी उठायी गयी है। अतएव
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उन्होंने 'भवतु वाऽयमय लैंगिकी प्रतिपत्तिरनुमानम्, इति । ३० अर्थात् लिंगी का ज्ञान अनुमान है' कहकर साध्यज्ञान को अनुमान मान लिया है। जब उनसे कहा गया कि साध्यज्ञान को अनुमान मानने पर फल का अभाव हो जायेगा तो वे उत्तर देते हैं कि नहीं, हान, उपादान और उपेक्षा बुद्धियाँ उसका फल है । उद्योतकर यहाँ एक महत्वपूर्ण बात और कहते हैं। वह यह कि सभी प्रमाण अपने विषय के प्रति भावसाधन हैं'प्रमितिः प्रमाणम्, अर्थात् प्रमिति ही प्रमाण है और विषयान्तर के प्रति करणसाधन हैं- 'प्रमीयतेऽनेनेति' अर्थात् जिसके द्वारा अर्थ (वस्तु प्रमित (सुज्ञात) हो उसे प्रमाण कहते हैं । इस प्रकार वे अनुमान की उक्त साध्यज्ञानरूप परिभाषा भावसाधन में स्वीकार करते हैं । धर्मभूषण ने इसी तथ्य का ऊपर उद्घाटन किया तथा साध्यज्ञान ही अनुमान है, इसका समर्थन किया है।
इस तरह जैन दर्शन में अनुमान की परिभाषा का मूल स्वामी समन्तभद्र की 'सधर्मणैव साध्यस्य साधर्म्यादविरोधत:' ( आप्तमी : १०६ ) इस कारिका में निहित है और उसका विकसित रूप सिद्धसेन के न्यायावतार ( का . ५ ) से आरम्भ होकर अकलंक देव के उपर्युक्त लधीयस्त्रय (का. १२) और न्यायविनिश्चय (द्वि. भा. २1१) गत दोनों परिभाषाओं में परिसमाप्त हैं । लघीयस्त्रय की अनुमान परिभाषा तो इतनी व्यवस्थित, युक्त और पूर्ण है कि उसमें किसी भी प्रकार के सुधार, संशोधन, परिवर्द्धन या परिष्कार की भी गुंजायश नहीं है । अनुमान का प्रयोजक तत्त्व क्या है और स्वरूप क्या है, ये दोनों उसमें समाविष्ट हैं।
1
अक्षपाद गौतम की 'तत्पर्वकमनुमानम्' " प्रशस्तपाद की 'लिगदर्शनात् संजायमानं लेगिकम् ' और
29. धारणारूपोऽनुभवः स्मृतौ हेतुः । भित्येत्सुसंगतमेव । - न्या दी. पृ. ६६,६७ ॥ पृ २६ । 32. न्याय सू. १११५ । 33. प्रश. भाष्य पृ. ६६ ।
૭
तल्लज्ञानं व्याप्ति स्मरगादिसह कृतमनुमानोत्वस निवन्धन30. न्याय वा. १।१३, पृ. २८ २६ । 31. वही १।१।२,
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________________ उद्योतकर की 'लिंगपरामर्शोऽनुमानम्' परिभाषाओं जैन तार्किक अकलंकदेव का लिंगात्साध्याविनामें हमें केवल कारण का निर्देश मिलता है, स्वरूप का भावमिनिबोधक लक्षणात / लिगिधीरमानुनं तत्फल नहीं। उद्योतकर की एक अन्य परिभाषा 'लैंगिकी हानादिबुद्धयः / / ' यह अनुमानलक्षण उक्त दोषों से प्रतिपत्तिरनुमानम्' में स्वरूप का ही उल्लेख है, मुक्त है। इसमें अनुमान के साक्षात्कारण का और कारण का उसमें सूचन नहीं है। दिङ्नाग की 'लिंगा- उसके स्वरूप दोनों का प्रतिपादन है। सबसे महत्वदर्थदर्शनम्'38 अनुमान-परिभाषा में यद्यपि कारण और पूर्ण बात यह है कि इसमें उन्होंने 'तत्फलं हानादि स्वरूप दोनों की अभिव्यक्ति है परन्तु उसमें लिंग को बद्धयः' शब्दों द्वारा अनुमान के हान, उपादान और कारण के रूप में सूचित किया है, लिंग के ज्ञान को उपेक्षा बुद्धिरूप फल का भी निर्देश किया है। सभवतः नहीं। किन्तु तथ्य यह है कि अज्ञायमान धूमादि लिंग इन्हीं सब विशेषताओं के कारण सभी जैन ताकिकों ने अग्नि आदि के जनक नहीं हैं / अन्यथा जो पुरुष सोया अकलंक देव की इस प्रतिष्ठित और पूर्ण अनुमानहआ है या जिसने साध्य और साधन की व्याप्ति का परिभाषा को ही अपने तर्क ग्रन्थों में अपनाया है। ग्रहण नहीं किया है उसे भी पर्वत में धूम के सद्भाव मात्र विद्यानन्द जैसे तार्किक मूर्धन्य मनीषी ने तो अनुमान से अनुमान होजाना चाहिए / किन्तु ऐसा नहीं है / पर्वत विदुर्बुधाः' कहकर और आचार्यों द्वारा कथित बतला में अग्नि का अनुमान उसी पुरुष को होता है जिसने कर उसके. सर्वाधिक महत्व का भी ख्यापन किया है। पहले महानस (भोजनशाला) आदि में धूम-अग्नि को एक साथ अनेक बार देखा और उनकी व्याप्ति ग्रहण यथार्थ में अनुमान एक ऐसा प्रमाण है, जिसका की है, फिर पर्वत के समीप पहुंचकर धुम को देखा, प्रत्यक्ष के बाद सबसे अधिक व्यवहार किया जाता है। अग्नि और धूम की गृहीत व्याप्ति का स्मरण किया, अत: ऐसे महत्वपूर्ण प्रमाण पर भारतीय ताकिकों ने और फिर पर्वत में उनका अविनाभाव जाना, तब उस अधिक ऊहापोह किया है। जैन ताकिक भी उनसे पीछे पुरुष को 'पर्वत में अग्नि है' ऐसा अनुमान होता है, नहीं रहे। उन्होंने भी अपने तर्क ग्रन्थों में उस पर केवल लिंग के सद्भाव से ही नहीं। अतः दिङ्नाग के विस्तृत चिन्तन किया है। यहां हमने अनुमान के मात्र उक्त अनुमानलक्षण में 'लिंगात्' के स्थान में 'लिंग- स्वरूप पर यत्किचित विमर्श प्रस्तुत किया है। तर्क दर्शनात्' पद होने पर ही वह पूर्ण अनुमानलक्षण हो / ग्रन्थों में उसके भेदों. अवयवों और अंगों आदि पर सकता है। विस्तृत विचार किया गया है, जो उन ग्रन्थों से ज्ञातव्य है। 37. न्या. दी. 34. न्याय वा. 1 / 115, पृ. 45; 35. न्याय वा. 1313; 36. न्याय फले. पृ. 7 ; पृ. 67; 38. तर्क मा. पृ. 78,76; 39. लधी. का. 12 /