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माना जाय तो उससे साध्य (अनुमेय ) का ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि लिंगपरामर्श का अर्थ लिंगज्ञान है और लिंगज्ञान केवल लिंग-माधन सम्बन्धी अज्ञान को ही दूर करने में समर्थ है, साध्य के अज्ञान को नहीं । यथार्थ में लिंग में होनेवाले व्याप्तिविशिष्ट तथा पक्षधर्मता के ज्ञान को परामर्श कहा गया है 'व्याप्तिविशिष्ट पक्षधर्मता ज्ञानं परामर्श:' । अतः लिंगपरामर्श इतना ही ज्ञान करा सकता है कि धूमादि लिंग अग्नि आदि साध्यों के सहचारी हैं और वे पर्वत आदि (पक्ष) में हैं और इस तरह लिंगपरामर्श मात्र लिंग सम्बन्धी अज्ञान का निराकरण करता है एवं लिंग के वैशिष्ठ्य को प्रकट करता है, अनुमेय ( साध्य ) सम्बन्धी अज्ञान का निरास कर उसका ज्ञान कराने में वह असमर्थ है । अतएवं लिंगपरामर्श अनुमान की सामग्री तो हो सकता है, पर स्वयं अनुमान नहीं । अनुमान का अर्थ है अनुमेय सम्बन्धी अज्ञान की निवृत्तिपूर्वक अनुमेयार्थ का ज्ञान । इसलिए साध्यसम्बन्धी अज्ञान की निवृत्तिरूप अनु मिति में साधकतम करण तो साक्षात् साध्यज्ञान ही हो सकता है । अतः साध्यज्ञान ही अनुमान है, लिंगपरामर्श नहीं । यहाँ धर्मभूषण इतना और स्पष्ट करते हैं कि जिस प्रकार धारणा नामक अनुभव स्मृति में, तात्कालिक अनुभव और स्मृति दोनों प्रत्यभिज्ञान में तथा साध्य एवं साधन विषयक स्मरण, प्रत्यभिज्ञान और अनुभव तर्क में कारण माने जाते हैं, उसी प्रकार व्याप्तिस्मरण आदि सहित लिंगज्ञान ( लिंगारामर्श) अनुमान की उत्पत्ति में कारण है।
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यहां ज्ञातव्य है कि लिंगपरामर्श को अनुमान की परिभाषा मानने में जो आपत्ति धर्मभूषण ने प्रदर्शित की है वह उद्योतकर के भी ध्यान में रही जान पड़ती है अथवा उनके समक्ष भी उठायी गयी है। अतएव
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उन्होंने 'भवतु वाऽयमय लैंगिकी प्रतिपत्तिरनुमानम्, इति । ३० अर्थात् लिंगी का ज्ञान अनुमान है' कहकर साध्यज्ञान को अनुमान मान लिया है। जब उनसे कहा गया कि साध्यज्ञान को अनुमान मानने पर फल का अभाव हो जायेगा तो वे उत्तर देते हैं कि नहीं, हान, उपादान और उपेक्षा बुद्धियाँ उसका फल है । उद्योतकर यहाँ एक महत्वपूर्ण बात और कहते हैं। वह यह कि सभी प्रमाण अपने विषय के प्रति भावसाधन हैं'प्रमितिः प्रमाणम्, अर्थात् प्रमिति ही प्रमाण है और विषयान्तर के प्रति करणसाधन हैं- 'प्रमीयतेऽनेनेति' अर्थात् जिसके द्वारा अर्थ (वस्तु प्रमित (सुज्ञात) हो उसे प्रमाण कहते हैं । इस प्रकार वे अनुमान की उक्त साध्यज्ञानरूप परिभाषा भावसाधन में स्वीकार करते हैं । धर्मभूषण ने इसी तथ्य का ऊपर उद्घाटन किया तथा साध्यज्ञान ही अनुमान है, इसका समर्थन किया है।
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इस तरह जैन दर्शन में अनुमान की परिभाषा का मूल स्वामी समन्तभद्र की 'सधर्मणैव साध्यस्य साधर्म्यादविरोधत:' ( आप्तमी : १०६ ) इस कारिका में निहित है और उसका विकसित रूप सिद्धसेन के न्यायावतार ( का . ५ ) से आरम्भ होकर अकलंक देव के उपर्युक्त लधीयस्त्रय (का. १२) और न्यायविनिश्चय (द्वि. भा. २1१) गत दोनों परिभाषाओं में परिसमाप्त हैं । लघीयस्त्रय की अनुमान परिभाषा तो इतनी व्यवस्थित, युक्त और पूर्ण है कि उसमें किसी भी प्रकार के सुधार, संशोधन, परिवर्द्धन या परिष्कार की भी गुंजायश नहीं है । अनुमान का प्रयोजक तत्त्व क्या है और स्वरूप क्या है, ये दोनों उसमें समाविष्ट हैं।
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अक्षपाद गौतम की 'तत्पर्वकमनुमानम्' " प्रशस्तपाद की 'लिगदर्शनात् संजायमानं लेगिकम् ' और
29. धारणारूपोऽनुभवः स्मृतौ हेतुः । भित्येत्सुसंगतमेव । - न्या दी. पृ. ६६,६७ ॥ पृ २६ । 32. न्याय सू. १११५ । 33. प्रश. भाष्य पृ. ६६ ।
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तल्लज्ञानं व्याप्ति स्मरगादिसह कृतमनुमानोत्वस निवन्धन30. न्याय वा. १।१३, पृ. २८ २६ । 31. वही १।१।२,
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