Book Title: Jain Darshan me Anekant
Author(s): 
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf

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Page 2
________________ Scoriandit हार को सुचारु रूप से चलाने वाला और वस्तु- भी अनेकान्त का द्योतक अथवा एकान्त दृष्टि का स्वरूप का सच्चा परिचायक है। इसके जाने बिना निषेधक है । इसी की पुष्टि में आचार्य विद्यानन्दी का पग-पग पर विसंवाद खड़े होते हैं। न केवल अन्य- ने कहा हैवादियों के विरुद्ध ही अपितु अपने स्वयं के वादों में "स्यादिति शब्दोऽनेकान्तद्योति प्रतिपत्तव्यो" ही विवाद उपस्थित हो जाते हैं । इसमें कोई सन्देह अर्थात् स्यात् शब्द को अनेकान्त का द्योतक समझना | नहीं कि भगवान महावीर के अनुयायियों में भी जो चाहिये। स्वामी अकलंक देव ने भी स्यावाद का ||7G फिरकापरस्ती, लड़ाई-झगड़े, खींचतान देखने को पर्याय अनेकान्त को ही बताया है और बतलाया है । मिलती है वह इस अनेकान्तवाद को न समझने के कि यह अनेकान्त सत् असत, नित्यानित्यादि सर्वथा कारण ही है। एकान्त का प्रतिक्षेप लक्षण है। "सदसन्नित्यादि यह अनेकान्त अपेक्षावाद के नाम से भी प्रख्यात सर्वथैकान्तप्रतिक्षेपलक्षणोऽनेकान्तः" अर्थात् सर्वथा है । मुख्य और गौण विवक्षा या अपेक्षा ही इसका एकान्त का विरोध करने वाला अनेकान्त कथञ्चित् आधार है। वस्तु के एक-अनेक, अस्ति-नास्ति, नित्य- अर्थ में स्यात् शब्द निपात हैअनित्य, तत्-अतत्, सत्-असत् आदि धर्म अपेक्षा से "सर्वथात्वनिषेधकोऽनेकान्तता द्योतकः कथ-मा ही कहे जा सकते हैं । वक्ता की इच्छा के अनुसार ञ्चिदर्थ स्याच्छब्दो निपातः" । समंतभद्र ने भी कहे जाते हैं । ज्ञानी को उसके अभिप्राय को जानकर स्याद्वाद का लक्षण अपने देवागमस्तोत्र में कितना ही वस्तु को समझने में उपयोग लगाना चाहिए। सन्दर किया हैबिना अपेक्षा के वस्तु का सही स्वरूप नहीं कहा जा स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात् किं वृत्तचिद्धिधि । सकता है और न समझा जा सकता है। आचार्य सप्तभंगनयापेक्षो हेयादेयविशेषकः ॥ श्री उमास्वाति ने : 'अर्पितानर्पित सिद्ध:'-अर्थात् वक्ता जब एक धर्म का प्रतिपादन करता है तो ___कहने का तात्पर्य है कि सभी जैनाचार्यों ने दसरा धर्म गौण कर देता है और जन सोशको अनेकान्त एवं स्याद्वाद को सर्वथा एकान्तवाद का कहता है तब अन्य धर्म को गौण कर देता है । यही खण्डन करने वाला, विधि निषेध को बताने वाला, वस्तु के कथन का क्रम है और यही समझने का। हेयोपादेय को समझाने वाला कहा है। जब तक हम पंचाध्यायी कर्ता ने लिखा है इस अनेकान्त को व्यावहारिक नहीं करेंगे और मात्र शास्त्रों की वस्तु ही रखेंगे तब तक कल्याण नहीं हो स्यादस्ति च नास्तीति च नित्यमनित्यं सकता । जैसे आम की अपेक्षा आंवला छोटा होता त्वनकमेक च। किन्तबेर की अपेक्षा बड़ा होता है। उसी प्रकार || तदतच्चेतिचतुष्टययुग्मैरिव गुम्फितं वस्तु ।। म मनुष्यत्व की अपेक्षा राजा और रंक समान होते हैं, अर्थात् स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, स्यात् नित्य, पण्डित और मूर्ख समान होते हैं किन्तु फिर भी स्यात् अनित्य, स्यात् एक, स्यात् अनेक,स्यात् सत्, उनमें परस्पर कितना अन्तर होता है । इसे कोई || स्यात् असत् इस प्रकार चार युगलों की भाँति वस्तु इनकार नहीं कर सकता। पिता-पुत्रादि के नाते भी IS | अनेक धर्मात्मक है। अपेक्षाकृत कहे जाते हैं। इस प्रकार यह अनेकान्त |. इस प्रकार अनेकान्तवाद अपेक्षावाद कथञ्चिद्- अथवा अपेक्षावाद शास्त्रों में ही नहीं, व्यवहार* वाद और स्याद्वाद ये सब एकार्थवाची हैं । स्यात् परक भी सिद्ध होता है। द्रव्यदृष्टि वस्तु के ध्रौव्य ) का अर्थ कथञ्चित् अर्थात् किसी अपेक्षा से है । स्यात् रूप का द्योतन कराती है तो पर्यायदृष्टि उसकी शब्द व्याकरण के अनुसार अव्यय है, जिसका अर्थ उत्पत्ति व विनाश का ज्ञान कराती है । कोई भी BAEON सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन NEWS 250 साध्वीरत्न कुसमवती अभिनन्दन ग्रन्थ open location International Private & Personal Use Only

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