Book Title: Jain Darshan me Anekant Author(s): Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf View full book textPage 1
________________ इनिवन्ध जैन दर्शन में अनेकान्त जैन दर्शन के भव्य प्रासाद के चार मुख्य स्तम्भ तरंगों से तरंगित होता हुआ अनन्त धर्मात्मक वस्तु हैं, उन्हीं के आधार पर यह महल टिका हुआ है- का सुस्पष्ट प्रतिपादन करता है जिससे समग्र विरोध CM (१) आचार में अहिंसा, (२) विचारों में अनेकान्त, उपशान्त हो जाते हैं। इस विरोध मथन करने 21 (३) वाणी में स्याद्वाद और (४) समाज में अपरि- वाले अनेकान्त को आचार्य अमृतचन्द्र ने नमस्कार | ग्रह। यदि इन चारों में से एक की भी कमी हो किया है जाती है तो जैन दर्शन का प्रासाद डगमगाने लगता परमागमस्य बीज अा है । हमें इन चारों की रक्षा करनी चाहिए । आज के निषिद्ध जात्यन्ध सिन्दूर विधानम् ।। || युग में जैन दर्शन के अनुयायियों में इसकी कमी सकल नय विलसितानां देखी जाती है और यह कमी ही जैन धर्म के ह्रास विरोधमथनं नमामि अनेकान्तम् ।। Dil का कारण है। बुद्धिजीवी जैन दार्शनिकों, अणु अर्थात् जन्मान्ध पुरुषों के हस्ति विधान का ( व्रती-महाव्रतियों तथा धर्मश्रद्धालु श्रावकों का ध्यान । निषेधक समस्त नयों से विलसित वस्तु स्वभाव के इस ओर जाना चाहिए कि हम अनेकान्ती हैं वस्तु- विरोध का शामक उत्तम जैन शासन का बीज स्वरूप के ज्ञाता हैं फिर क्यों परस्पर वैमनस्य भाव अनेकान्त सिद्धान्त को मैं (आचार्य अमृतचन्द्र) नम-K रखकर झगड़ते हैं। स्कार करता हूँ। ___ भगवान महावीर ने वस्तु को अनेक धर्मात्मक इसी प्रकार सन्मति तर्क के कर्ता न्यायावतार के बतलाया है उस अनेक धर्मात्मक वस्तु को जानने के लिए अनेकान्त दृष्टि या नयदृष्टि का प्रयोग। लेखक आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर ने भी अनेकान्त को नमस्कार किया हैबतलाया है क्योंकि अनेक धर्मात्मक वस्तू का परिजा ज्ञान अनेक दृष्टियों अर्थात् विभिन्न पहलुओं से ही जेण विणा लोगस्स ववहारो सव्वथा न निव्वइए । ना हो सकता है । एक से नहीं । 'अन्त' शब्द का अर्थ तस्स भुवणेक्क गुरुणो णमोऽणेगंतवायस्स ॥ धर्म होता है जिसमें अनेक धर्म पाये जायें वह -सन्मति तक ३/६८ अनेकान्त है । इस अनेकान्त विचारधारा को स्या- अर्थात् जिसके बिना लोक का व्यवहार सर्वथा (RL द्वाद की निर्दोष भाषा से अभिव्यक्त किया जाता है। नहीं चल सकता उस तीन भुवन के एकमात्र गुरु जब यह अनेकान्तवाद स्याद्वाद की गंगा में बहता अनेकान्तवाद को मैं नमस्कार करता हूँ। है तब किनारे के मिथ्यावादों का स्वतः निरसन हो इससे सिद्ध होता है कि यह अनेकान्तवाद जाता है । यह वाद अपनी अलौकिक नाना नयों की समस्त विरोधों को शान्त करने वाला, लोक व्यव ४६८ सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन 00 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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