Book Title: Jain Darshan ke Aalok me Nayavad aur Dravyavada Author(s): Rameshmuni Publisher: Z_Bhanvarlal_Nahta_Abhinandan_Granth_012041.pdf View full book textPage 3
________________ क्योंकि कर्म का क्षय होने पर उसकी सत्ता नहीं रहती है। का कार्य है। जब हम कहते हैं कि ज्ञान स्वयं आत्मा है निश्चय नय में जीव के विशुद्ध और निर्विकार स्वरूप का तो यह निश्चय नय की भाषा है और ज्ञान आत्मा का संदर्शन होता है, किन्तु जीव का वैभाविक-भाव परि- एक मौलिक गुण है तो यह व्यवहार नय की भाषा हुई। लक्षित नहीं होता है। निश्चय नय में मन, तन और यहाँ पर आत्मा गुणी है और उसका गुण 'ज्ञान' है। इन्द्रियाँ भी नहीं झलकती है। क्यों कि वे आज हैं, कल गुण कभी भी गुणी से विलग नहीं हो सकता। गुणी और नहीं भी हैं। आत्मा का कर्म बद्ध रूप, स्पृश्य रूप, भेद गुण में अखण्डता और अभेदता होती है। व्यवहार नय रूप तथा अनियत रूप जो साधारण दृष्टि में झलकता है, की दृष्टि से आत्मा को गुणी माना जाता है और ज्ञान को पर है। आत्मा बद्ध नहीं है, अस्पृश्य है, नियत है और उसका गुण माना गया है। यह भेद दृष्टि का प्रतिपादन अभिन्न है। जब तक यह परिबोध नहीं होगा, तब तक है। जैन दर्शन के मन्तव्य के अनुसार गुणी और गुण का जीव भव-बन्धनों से विमुक्त नहीं हो सकता। जहाँ पर तादात्म्य सम्बन्ध है। किन्तु आधार-आधेय भाव का विकल्प है, भेद है वहाँ निश्चय नहीं है। निश्चय नय सम्बन्ध नहीं है जिस प्रकार घृत और पात्र में होता है। वस्तुतः विकल्प और भेद से रहित होता है। उसमें देह, घृत आधेय है और उसका आधार पात्र है। पात्र में इन्द्रिय, मन, कर्म आदि से परे एकमात्र शुद्धतम आरम- घी संयोग सम्बन्ध से रहता है। परन्तु घृत और पात्र की तत्व पर दृष्टि रहती है। कर्म पुद्गल का जो उदय भाव स्वतन्त्र सत्ता है। उनमें तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है है वह यथार्थ में निश्चय दृष्टि का लक्ष्य नहीं है । उसका जबकि जीव और उसके ज्ञान गुण का सम्बन्ध तादात्म्य प्रमुख लक्ष्य है-व्यवहार नय को लांघकर परम विशुद्ध है। जैन दर्शन के अभिमतानुसार गुणी और गुण में न निर्विकार स्थिति पर पहुँचना, जहाँ पर किसी भी प्रकार एकान्त भेद होता है और न एकान्त अभेद। पर का मोह नहीं है, क्षोभ नहीं है, पर्यायों की प्रतिपल- कथंचित् भेद है, और कथंचित अभेद है। ज्ञानगुण जीव . प्रतिक्षण परिवर्तित हो रही दशा, जो भेद रूप दृष्टिगोचर द्रव्य के अतिरिक्त कहीं नहीं रहता है । यह सद्भुत व्यवहार होती है, उससे भी परे जो अभेद-द्रव्यमय भाव है, जो नय है । अनादि काल से अशुद्ध नहीं हुआ है और जब वह अशुद्ध नहीं हुआ तब शुद्ध भी कहाँ रहा? इस प्रकार अशुद्ध एवं निश्चय नय और व्यवहार नय इन दोनों को समझने शुद्ध इन दोनों से परे निर्विकल्प, त्रिकाली, एकमेवा- के लिये कुछ तथ्य और भी ज्ञातव्य हैं। जीव और बद्ध द्वितीय निज स्वरूप है। वही शद्ध निश्चय नय का स्वरूप होने वाले कम-पुद्गल को एक क्षेत्रावगाही बताया गया है। शुद्ध निश्चय नय द्रव्य प्रधान है, वह नारक, तिर्यञ्च है। आकाश रूप क्षेत्र में जीव एवं कर्म दोनों रहते हैं। आदि पर्यायों को ग्रहण नहीं करता है। किन्तु आत्मा के इन दोनों का एक ही क्षेत्र है। प्रस्तुत कथन व्यवहार दृष्टि विशद्ध ज्योतिर्मय स्वरूप को ही ग्रहण करता है। अन्य से है। निश्चय नय की अपेक्षा से प्रत्येक द्रव्य अपने में कोई भी उसके लिये ज्ञातव्य नहीं रहता है और उपादेय ही रहता है। किसी दूसरे में नहीं । जीव जीव में रहता भी नहीं रहता है। है, कर्म कर्म में रहता है। व्यवहार नय की दृष्टि से जीव आत्मा के असंख्यात और अनन्त विकल्पों का और कर्म एक क्षेत्रावगाही और संयोगी होने से दोनों का परित्याग कर स्व-स्वरूप की प्रतीति करना ही निश्चय नय क्षेत्र एक कहा गया है । जैसे दूध और पानी मिलने पर यह है। निश्चय नय निमित्त को न पकड़ कर उपादान को नहीं कहा जा सकता कि यह दूध का जल है। बल्कि ही पकड़ता है जब कि व्यवहार नय की दृष्टि निमित्त कहा जाता है कि यह दूध है क्योंकि ये दोनों एकमेल हो पर ही होती है। निश्चय और व्यवहार इन दोनों नयों गये हैं। किन्तु निरचय नय की दृष्टि से दूध दूध है, में यह भी अन्तर है कि निश्चय नय अभेद प्रधान है और पानी पानी है। एक क्षेत्रावगाही होने मात्र से दोनों एक व्यवहार नय भेद प्रधान है। भेद में अभेद देखना यह नहीं हो सकते । वैसे ही जीव और कर्म एक क्षेत्रावगाही निश्चय नय है और अभेद में भेद देखना यह व्यवहार नय होने से एक नहीं हो सकते। जीव और कर्म इन दोनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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