Book Title: Jain Darshan ke Aalok me Nayavad aur Dravyavada
Author(s): Rameshmuni
Publisher: Z_Bhanvarlal_Nahta_Abhinandan_Granth_012041.pdf

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Page 2
________________ किया है। चेतन और अचेतन ये दोनों पदार्थ ही सत् ज्ञान सोपाधिक हैं। अतएव इसे उपचरित सद्भुत हैं । अतएव सत्व की अपेक्षा से अभिन्न हैं। पर इन दोनों व्यवहार नय कहते हैं । निरूपाधिक गुण-गुणी के भेद को में स्वभाव भेद अवश्य है, इसलिये भिन्न है। वास्तव ग्रहण करने वाला अनुपचरित सद्भुत व्यवहार नय है । उपाधि से मुक्त गुण के साथ जब उपाधि रहित में अभेद और भेद दोनों तात्त्विक हैं। क्योंकि भेद-शन्य जीव का सम्बन्ध प्रतिपादित किया गया है तब अभेद में अर्थ क्रिया नहीं होती है, विशेष में ही अर्थ । निरुपाधिक गुण-गुणी के भेद से अनुपचरित सद्भुत क्रिया होती है। परन्तु अभेद शन्य भेद में भी अर्थ क्रिया व्यवहार नय सिद्ध हो जाता है। जैसे केवल ज्ञान आत्मा नहीं होती है, कारण और कार्य का सम्बन्ध नहीं मिलता का सर्वथा निरावरण क्षायिक ज्ञान है। अतएव वह है। पूर्व क्षण उत्तर क्षण का कारण तभी बनता है जबकि निरुपाधिक है। असदभूत व्यवहार नय के दो प्रकार दोनों में एक धू व, अर्थात् अभेदांश, अन्वयी माना जाए। हैं : उपचरित असदभूत व्यवहार नय एवं अनुपचरित एतदर्थ ही जैन दर्शन अभेदाश्रित भेद, और भेदा असद्भुत व्यवहार नय । संश्लेष युक्त पदार्थ के सम्बन्ध श्रित अभेद को मानता है। नय के मुख्य भेद दो हैं । को विषय करने वाला जो नय है वह अनुपचरित द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । नैगम, संग्रह, व्यवहार व असद्भुत व्यवहार नय है। जैसे जीव का शरीर। यहाँ जुसूत्र चार नय द्रव्यार्थिक हैं और शब्द, समभिरुढ़ और पर जीव और देह का सम्बन्ध परिकल्पित नहीं है। किन्तु एवंभूत तीन नय पर्यायार्थिक हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से नय जीवन पर्यन्त स्थायी होने से अनुपचरित है। जीव एवं का वर्गीकरण दो प्रकारसे हुआ है—निश्चय नय और व्यव देह के भिन्न होने से वह असद्भुत व्यवहार भी है । हार नय। जो नय पदार्थ के मूल और पर-निरपेक्ष स्वरूप संश्लेष रहित पदार्थ के सम्बन्ध को विषय करने वाला को बतलाता है वह निश्चय नय कहलाता है और जो नय पराश्रित दूसरे पदार्थों के निमित्त से समुत्पन्न उपचरित असद्भुत व्यवहार नय है। जैसे रामप्रसाद का पदार्थ-स्वरूप को बतलाता है उसे व्यवहार नय कहते धन ! यहाँ पर रामप्रसाद का धन के साथ सम्बन्ध माना गया है। किन्तु वास्तव में वह परिकल्पित होने से हैं। निश्चय नय भूतार्थ है और व्यवहार नय अभूतार्थ उपचरित है। रामप्रसाद और धन ये दोनों वस्तुतः भिन्नहै । तात्पर्य की भाषा में यों भी कहा जा सकता है कि भिन्न द्रव्य हैं। एक नहीं हैं। रामप्रसाद और धन का पदार्थ के पारमार्थिक तात्त्विक शुद्ध स्वरूप का ग्रहण यथार्थ सम्बन्ध नहीं है। निश्चय नय से होता है और अराद्ध अपारमार्थिक स्वरूप का ग्रहण व्यवहार नय से होता है। व्यवहार नय के निश्चय नय पर-निरपेक्ष स्वभाव का प्रतिपादन करता मुख्य प्रकार दो हैं : सद्भुत व्यवहार नय और असद्भुत है। जिन-जिन पर्यायों में पर-निमित्त पड़ जाता है उन्हें व्यवहार नय। एक पदार्थ में गुण-गुणी के भेद से, भेद वह शद्ध नहीं कहता है। पर-जन्य पर्यायों को वह पर को विषय करने वाला सद्भुत व्यवहार नय है। इसके मानता है। जैसे जीव के राग-द्वेष, काम-क्रोध, मोह-लोभ भी दो प्रकार हैं : उपचरित सद्भुत व्यवहार नय, एवं प्रभृति भावों में यद्यपि जीव स्वयं उपादान होता है, वही अनुपचरित सद्भुत व्यवहार नय । सोपाधिक गुण और गुणी राग-रूप से परिणति करता है परन्तु यह जो भाव है वह में भेद ग्रहण करने वाला उपचरित सद्भुत व्यवहार नय कर्म निमित्तक है। अतएव इन्हें वह आत्मा के निज है। निरुपाधिक गुण और गुणी में भेद ग्रहण करने वाला रूप नहीं मानता है। अन्य जीवों और संसार के समस्त अनुपचरित सद्भुत व्यवहार नय है। जिस प्रकार जीव अन्य अजीवों को वह अपना मान ही नहीं सकता। परन्तु का मतिज्ञान, श्रतज्ञान आदि लोक में व्यवहार होता है जिन आत्म-विकास के स्थानों में पर का किञ्चित मात्र व्यवहार में उपाधि रूप ज्ञानावरण कर्म के आवरण से कलुषित भी निमित्त होता है उन्हें वह 'स्व' नहीं, 'पर' मानता आत्मा का मल सहित ज्ञान होने से जीव के मतिज्ञान, है। निश्चय नय की दृष्टि से जीव बद्ध नहीं प्रतीत होता । श्रतज्ञान, अवधि ज्ञान और मनःपर्यव ये चारों क्षयोपशमिक कर्म बद्ध अवस्था जीव का त्रैका लिक स्वभाव नहीं है। ३० ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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