Book Title: Jain Darshan ka Manovigyan Man aur Leshya ke Sandharbh me
Author(s): Rajiv Prachandiya
Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf

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Page 4
________________ 02 %000030 1 6034000049-60000000000 ago 1 534 उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ / RSS4 माया, उपाधि, निकृति, वलय, गहन, नूम, कल्क, कुरुप, जिहमता, उपर्यंकित मन के विज्ञान का विवेचन-विश्लेषण से निष्कर्षतः किल्विषिक, आदरबता, गूहनता, वंचकता, प्रतिकुंचनता तथा / यह कहा जा सकता है कि जैनदर्शन में व्यवहृत सिद्धान्त सातियोग।३३ चौथी मनोवृति तृष्णा अर्थात् लोभ-लालसा है। इसकी F000 1 नीति- आचारादि पक्ष के माध्यम से कोई भी प्राणी अपने मन को सोलह अवस्थाएँ हैं-लोभ, इच्छा, मूर्छा, कांक्षा, गृद्धि, तेष्णा, प्रभावित करता हुआ आत्मा का विकास कर सकता है। यह दर्शन मिथ्या, अभिध्या, आशंसना, प्रार्थना, लालपनता, कामाशा, भोगाशा, जीव के मन की चेतन-अवचेतनअचेतन तीनों अवस्थाओं को जीविताशा, मरणाशा तथा नन्दिराग।३४ / / सुंस्कारित-परिष्कृत करने में सर्वदा सक्षम है। इसके सिद्धान्तों में उन वृत्तियों की तीव्रता-मन्दता तथा स्थायित्व को देखते हुए। ऐसी विद्युत शक्ति है जिसका सम्यक् ज्ञान तथा आचरण करने से व्यक्ति का अन्तर्द्वन्द्व शान्त होता है। नैतिक भावनाएँ तो प्रस्फुटित जैनागम में ये वृत्तियाँ चार-चार भागों में विभक्त हैं-अनन्तानुबंधी, होती ही हैं साथ ही कुत्सित भावनाओं असंख्यात वासनाओं का अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी तथा संज्वलन।३५ इन वृत्तियों में लीन / भस्म भी होना होता है। तदनन्तर प्राणी का मार्ग भी प्रशस्त अर्थात् व्यक्ति संसार चक्र के चक्रमण में भ्रमण करता है। नरक गति से / मंगलमय होता है। आज अपेक्षा है मन और लेश्याओं के माध्यम से देवगति तक की यात्रा तो करता है किन्तु इस यात्रा से बन्धन से अन्तरंग में प्रतिष्ठित अनन्त शक्तियों के जागरण की जिससे स्व-पर मुक्त नहीं हो पाता। क्योंकि ये मनोवृत्तियाँ आत्मा में व्याप्त अनन्त का कल्याण हो सके। वास्तव में जैनदर्शन का मनोविज्ञान जिसमें चतुष्टय को, लेश्याओं की सहायता से, अष्टकर्मों के मजबूत वेस्टन मन और लेश्या की भूमिकाएँ विशेषेन अनिर्वचनीय हैं, समस्त से आवरित करने में परम सहायक हैं। वास्तव में ये काषायिक प्राणवंत जीवों के लिए परम उपयोगी एवं कल्याणप्रद है। वृत्तियाँ प्रेम-प्रीति, विनय, मित्रता तथा अन्य समस्त सद्गुणों, पता : मंगल कलश मानवीय गुणों को नष्ट करने में सदा प्रवृत्त रहती हैं।३६ अतः इनसे 394, सर्वोदय नगर छूटना ही श्रेयस्कर है। आगरा रोड, अलीगढ़-२०२00१ सन्दर्भ स्थल 1. जे आया से विन्नाया" "पडिसंखाए। -आचारांग सूत्र, 1/5/5/1 2. (क) नन्दी सूत्र, सूत्र 30, (ख) स्थानाङ्ग सूत्र, स्था. 5 3. प्रज्ञापना सूत्र, इन्द्रिय पद १५वौँ, 4. प्रज्ञापना सूत्र, इन्द्रिय पद १५वाँ 5. तत्त्वार्थ सूत्र, 1/19 6. प्रज्ञापना सूत्र, इन्द्रिय पद, 1/19 7. प्रज्ञापना सूत्र, भाषापद, 1/19 8. सद्दे-रूवे य गन्धे य, रसे फासे तहेव य। पंचविहे कामगूणे, निच्चसो परिवज्जए॥ -उत्तराध्ययन सूत्र, 16/10 9. सव्वे सुहसाया. दुक्ख पडिकूला। -आचारांग सूत्र, 1/2/3 10. इन्द्रिय मनोनुकूलायाम्प्रवृत्तो, लाभस्यार्थस्याभिल्गाषातिरेके। -राजेन्द्र अभिधान, खण्ड 2, पृष्ठ 575 11. रागस्सहेउ समणुन्नमाहु दोसस्स हेउं अमणुन्नमाह। -उत्तराध्ययन सूत्र, 32/23 12. सर्वार्थसिद्धि, 1/14/109/3 13. मनः द्विविधः द्रव्यमनः भावमनः च। -सर्वार्थसिद्धि, 2/11/170/3 14. नन्दी सूत्र, सूत्र 40 15. तओ से जायंति-वइस्से। -उत्तराध्ययन सूत्र, 32/105/12/103 16. योगशास्त्र, आचार्य हेमचन्द्र 17. उत्तराध्ययनसूत्र, अध्याय 23, गाथा 36 18 लेशयति-श्लेषयतीवात्मनि जननयना नीति लेश्या-अतीव चक्षुराक्षेपि का स्निग्ध दीप्त रूपछाया। -बृहवृत्ति, पत्र 650 19 मूलाराधना, 6/1906 20. धवला, दिग्बराचार्य, वीरसेन, 7, 2, 1 सूत्र 3, पृष्ठ 7 21. (क) सर्वार्थसिद्धि, पूज्यपाद आचार्य, 2/6 (ख) तत्त्वार्थराजवार्तिक, आचार्य अकलंक, 2/6/8, पृष्ठ 109 22. सा षड्विधा-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोत लेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या शुक्ललेश्या चेति। -सर्वार्थसिद्धि, अ. 2, सूत्र 6, पृष्ठ 159 23. उत्तराध्ययन सूत्र, अध्याय 34, गाथांक 21, 22 24. उत्तराध्ययन सूत्र, अध्याय 34, गाथाङ्क 23, 24.. 25. वही, गाथांक, 25, 26 26. वही, गाथांक, 27, 28 27. वही, गाथांक, 29, 30 28. वही, गाथांक, 31, 32 29. वही, अध्याय 34, गाथांक, 56 30. वही, अध्याय 34, गाथांक, 57 31. भगवती सूत्र, शतक 12, उ. 5, पा. 2 32. भगवती सूत्र, शतक 12, उ.५. पाठ 3 33. वही, पाठ 4 34. वही पाठ 5, 35. (क) धवला, 6/1, 9-2, 23/41/3 (ख) द्रव्यसंग्रह, टीका, 30/69/7 (ग) वारस अणुवेक्खा, गाथांक 49 36. दशवैकालिक सूत्र, अध्याय 8, गाथाङ्क, 38-39 SoSORT Sampooganuar force %30000-00-00-00-56 महिला oooo o s

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