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अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
५३१ ।
जैन दर्शन का मनोविज्ञान : मन और लेश्या के सन्दर्भ में
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_-डॉक्टर राजीव प्रचंडिया, एडवोकेट
(एम. ए. (संस्कृत), बी-एस. सी., एल-एल. वी., पी-एच. डी. ) जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जहाँ मनोविज्ञान की आज है। इसके अमूर्तिक अर्थात् वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श आदि मूर्ति का अपेक्षा न हो। इसका मूल कारण है कि विकार-तनाव अर्थात् । अभाव होने के कारण साक्षात् दर्शन-उपलब्धि हेतु जीव को त्रासमय प्राणी का मन अस्थिर-अस्पष्ट होने के फलस्वरूप वह 'इन्द्रियों' का अवलम्बन अपेक्षित रहता है। वास्तव में इन्द्रियाँ अनेक आपदाओं-विपदाओं से ग्रसित-व्यथित है, अस्तु उसके जीवन आत्मा के अस्तित्त्व की परिचायक हैं तथा आत्मा के द्वारा होने की प्रत्येक क्रिया-प्रक्रिया और प्रतिक्रिया में असन्तोष और भय वाले संवेदन का साधन भी। इन्द्रियाँ पाँच भागों में विभक्त हैंपरिलक्षित है, आवेग-आक्रोश समाविष्ट है। मन के विज्ञान-तन्त्र पर
१. श्रोत्र इन्द्रिय २. चक्षु इन्द्रिय जब मनन-चिन्तन किया जाता है तो अनगिनत समस्याओं से सम्पृक्त वही व्यक्ति निश्चय ही अपने को इन समस्याओं से अलग-थलग
३. घ्राण इन्द्रिय ४. रसना इन्द्रिय पाता है। वास्तव में जो विज्ञान अर्थात् विशिष्ट ज्ञान आदर्शवादिता ५. स्पर्शन इन्द्रिया से परे यथार्थता से अनुप्राणित जीव के चेतन अथवा अचेतन मन
ये पाँचों इन्द्रयाँ दो-दो प्रकार की होती हैंके समस्त व्यवहारों-क्रियाओं का सम्यक् अध्ययन- विश्लेषण अर्थात् उसके रूप-स्वरूप का उद्घाटन करने में सक्षम हो वही वस्तुतः
१. द्रव्येन्द्रिय
२. भावेन्द्रिय मनोविज्ञान है। जैनमनोविज्ञान किसी प्रयोगशालायी निकष पर नहीं इन्द्रियों की आंगिक संरचना अर्थात् इन्द्रियों का बाह्य अपितु आगम-मनीषियों/ध्यान-योगियों की सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि पर । पौद्गलिक रूप द्रव्येन्द्रिय तथा आन्तरिक क्रियाशक्ति अर्थात् अवस्थित है।
आन्तरिक चिन्मय रूप भावेन्द्रिय कहलाती है। जैनाचार्यों ने इनके प्रस्तुत आलेख में 'जैन दर्शन का मनोविज्ञान : मन और लेश्या । पुनः भेद-प्रभेद किए हैं। द्रव्येन्द्रिय 'निवृत्ति' और 'उपकरण' तथा के सन्दर्भ में' नामक सामयिक एवं परम उपयोगी-व्यापक विषय पर भावेन्द्रिय लब्धि और उपयोग दो भागों में प्रभेदित हैं। उपर्युक्त संक्षिप्त चर्चा करना हमारा मूलाभिप्रेत है।
पाँच इन्द्रियों में से चार इन्द्रियाँ अर्थात् श्रोत्र, घ्राण, रसना और दृष्ट और अदृष्ट इन द्वय क्रियाओं में व्यक्ति का जीवन
स्पर्शन प्राप्यकारी तथा चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी होती हैं। इसका संचरण होता है। दृष्ट क्रियाओं का सीधा सम्बन्ध मन की चैतन्य
मूल कारण है कि ये चारों इन्द्रियाँ बाह्य पदार्थों के अर्थात् अवस्था से रहा करता है जबकि अदृष्ट क्रियाएँ मन की अचेतन
अपने-अपने विषय के संसर्ग से उत्तेजित होकर अपने ग्राह्य विषय अवस्था के परिणामस्वरूप हैं। मनुष्य की ये समस्त क्रियाएँ उसकी
को ग्रहण करती हैं किन्तु चक्षु इन्द्रिय संसर्ग की अपेक्षा प्रकाश एवं मनोवृत्तियाँ कहलाती हैं। जैनदर्शन में मनोवृत्ति के मुख्यतः तीन रूप
रंगादि के माध्यम से ही संवेदन करती है। इन्द्रियों के भेद-प्रभेदों के बताए गए हैं
उपरान्त यह जानना भी आवश्यक हो जाता है कि इन इन्द्रियों के
क्या-क्या विषय-व्यापार हैं ? श्रोत्रेन्द्रिय का विषय 'शब्द' है।६ शब्द १. ज्ञान २. वेदना ३. क्रिया।
तीन प्रकार के हैंइन तीनों का ही एक दूसरे से शाश्वत तथा प्रगाढ़ सम्बन्ध है क्योंकि जो कुछ ज्ञान जीव को होता है, उसके साथ-साथ वेदना
१. जीव का शब्द २. अजीव का शब्द और क्रियात्मक भाव भी स्थिर होने लगते हैं। प्रत्यक्षीकरण, संवेदन,
३. मिश्र शब्द। स्मरण, कल्पना और विचार संवेदन नामक मनोवृत्तियाँ ज्ञान रूपी कुछ विचारक शब्द के सात प्रकार मानते हैं। वास्तव में शब्द मनोवृत्ति, सन्देश उत्साह स्थायी भाव और भावना नामक | एक प्रकार के पुद्गल परमाणुओं का कार्य है जिसके परमाणु मनोवृत्तियाँ, वेदना तथा सहज क्रिया, मूलवृत्ति, स्वभाव, इच्छित | सम्पूर्ण लोक में सदा व्याप्त रहते हैं। चक्षु इन्द्रिय का विषय क्रिया, चारित्र नामक मनोवृत्तियाँ, क्रिया मनोवृत्ति के अन्तर्गत आती । रंग-रूप है। मुख्यतः पाँच प्रकार के रंग होते हैं-काला-नीला-पीलाहैं। इन त्रय मनोवृत्तियों के पल्लवन-विकसन से प्राणी का अन्तर्मन लाल-श्वेत। इन पाँचों के सम्मिश्रण से अन्य शेष रंग प्रकट होते हैं। प्रबल होता है और संकल्प शक्ति स्थिर रहती है।
तृतीय इन्द्रिय है घ्राणेन्द्रिय, जिसका व्यापार नासिका द्वारा गन्ध जैनदर्शन अध्यात्म अर्थात् आत्मवादी दर्शन है। यहाँ आत्मा के | प्राप्त कराना है। गन्ध दो प्रकार की होती हैं- सुगन्ध और दुर्गन्ध। अस्तित्व, उसके स्वरूप-अवस्थादि पर गहराई के साथ चिन्तन किया । रसनेन्द्रिय का विषय है रसास्वादन। अम्ल, लवण, कषैला, कटु, गया है। जैनदर्शन में आत्मा को अनन्त ज्ञान-दर्शन मय माना गया । और तीक्ष्ण ये पाँच प्रकार के रस होते हैं। स्पर्शानुभूति में स्पर्शन
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ इन्द्रिय निमित्त होती है। स्पर्श का अनुभव आठ प्रकार से किया । अमनस्क भी होते हैं। यह निश्चित है कि भाव मन आत्मा की ही जाता है-उष्ण, शीत, रूक्ष, चिकना, हल्का, भारी, कर्कश, कोमल।। एक शक्ति होने के कारण इन सभी प्राणियों में सदा विद्यमान रहता इस प्रकार इन पाँचों इन्द्रियों की सहायता से जीव उपर्युक्त विषयों है किन्तु द्रव्य मन के अभाव में इसका उपयोग नहीं हो पाता है। का निरन्तर सेवन करता हुआ उनमें सदा प्रमत्त रहता है। इसलिए । मन जिन-जिन विषयों में प्रमत्त रहता है, वासनाएँ उतने ही रूपों में साधक को शब्द, रूप, रस, गन्ध तथा स्पर्श इन पाँचों प्रकार के प्रकट-प्रबल होती जाती हैं। निश्चितरूपेण मन के अप्रमत्त अर्थात् इन्द्रिय विषयों को सदा-सदा के लिए त्यागने का निर्देश दिया गया । जाग्रत रहने पर ही वासनाएँ क्षीण एवं समाप्त हो जाती हैं। है।८ इन्द्रियाँ जब अनुकूल विषयों में एक बार नहीं अनेक बार
मन की जो शुभाशुभ प्रवृत्ति अर्थात् रागद्वेषात्मक भाव हैं, वे आकृष्ट होती हैं, उनमें रमण करती हैं तब जीव अपने को सुखी
बन्धन के मूल कारण माने गए हैं। वास्तव में मुक्ति और बन्धन का मानकर भ्रमित होता है किन्तु इसकी विपरीत स्थिति में वही जीव । सम्बन्ध प्राणी के मन से ही रहता है। मन के समस्त क्रिया-कलाप/ अपने को दुःखी समझता है अर्थात् जो इन्द्रियों को अनुकूल लगता व्यापार को समझ लेने पर प्राणी मुक्ति पथ पर अग्रसर होता है। है वह तो सुखद और जो प्रतिकूल है वह दुःखद होता है। इन्द्रियों अन्यथा इन्द्रियों और मन के विषयों में आसक्त प्राणी जन्म-मरण के के अनुकूल विषयों की पुनः प्राप्ति की प्रवृत्ति जो 'इच्छा' कहलाती चक्र में फँसकर विषयासक्ति से अवश, दीन, लज्जित और करुणा है१०, आसक्ति या राग का रूप ग्रहण करती है और इसकी । जनक स्थिति को प्राप्त करता हैं।१५ विपरीत स्थिति घृणा या द्वेष को धारण करती है।११ इन
जैनदर्शन में मन की चार अवस्थाएँ निरूपित हैंराग-द्वेषात्मक भावों-वृत्तियों से आत्म तत्त्व का वास्तविक स्वरूप अर्थात् समत्व रूप सदा प्रच्छन्न रहता है।
१. विक्षिप्त मन२. यातायात मन
३. श्लिष्ट मन आत्मा के संवेदन का दूसरा साधन है मन। वह आत्म तत्त्व के ।
४. सुलील मन१६ उत्कर्ष-अपकर्ष का प्रधान कारण बनता है। यह मन, इन्द्रिय नहीं
पहली अवस्था मन की विषयासक्त तथा संकल्प-विकल्प युक्त अपितु अनिन्द्रिय अथवा नोइन्द्रिय कहलाता है।१२ इन्द्रियाँ मात्र ।
विक्षुब्ध अवस्था है। यह प्रमत्तता की अवस्था भी कहलाती है। मन अपने-अपने विषयों में ही संश्लिष्ट रहती हैं जबकि मन
की द्वितीय अवस्था में मन कभी अन्तर्मुखी तो कभी बहिर्मुख की सर्वार्थग्राहक होता है अर्थात् वह मूर्त-अमूर्त समस्त पदार्थों में प्रवृत्ति
ओर प्रेरित होता है। मन की यह प्रमत्ताप्रमत्त अवस्था है। तृतीय करता है। इन्द्रियों की भाँति इसके विषय-क्षेत्र की कोई मर्यादा-सीमा
अवस्था चित्त की अप्रमत्त अवस्था है। इसमें चित्त पूर्णरूप से विषयों नहीं होती है। मन का विश्लेषण करते हुए जैनधर्म में मन को दो
से रहित तो नहीं होता किन्तु अशुभ भावों का पूर्ण समापन होता रूपों में विभक्त किया गया
है। यह साधक की आनन्दमय अवस्था होती है। चतुर्थ अवस्था तक
आते-आते साधक की समस्त चित्तवृत्तियाँ समाप्त हो जाती हैं। १. पीद्गलिक अर्थात् द्रव्यमन
साधक शुभ-अशुभ भावों से ऊपर उठकर स्वयं शुद्ध-ज्ञाता-दृष्टामय २. चैतन्यमन अर्थात् भावमन१३
हो जाता है। साधक की यह परमानन्द या समाधि की अवस्था होती
है। इस प्रकार जीव के विकास-हास में मन का योगदान, उसकी मनोवर्गणा के पुद्गलों से विनिर्मित तत्त्व विशेष द्रव्यमन तथा
भूमिका कितनी महत्त्वपूर्ण है, यह प्रत्यक्ष परिलक्षित है। मनोनिग्रह आत्मतत्त्व की चिन्तन-मनन रूप शक्ति वस्तुतः भाव मन कहलाता
से उपर्युक्त पाँचों इन्द्रियाँ तो वशीभूत हो ही जाती हैं विषयहै। ये दोनों ही मन अपने चिन्तन का कार्य सम्पादित करते हैं।
वासनाओं का भी उन्मूलन होता है, चंचलता भी नष्ट होती है और जैनदर्शन में मन के आधार पर ही प्राणी को दो भागों में विभाजित
आत्मा के वास्तविक स्वरूप का उद्घाटन भी होता है।१७ । किया गया है
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से जैनधर्म में 'लेश्या' का जो तल १. अमनस्क प्राणी अर्थात् असंज्ञी
स्पर्शी विवेचन-विश्लेषण है, वह वस्तुतः अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। २. समनस्क प्राणी अर्थात् संज्ञी१४
लेश्या-विचार में मानसिक वृत्तियों के वर्गों का, मन के विचारों का समनस्क-अमनस्क प्राणी के रूप-स्वरूप का अध्ययन करने पर तथा उनके उद्गमस्थलादि का अध्ययन किया जाता है। यह सहज ही कहा जा सकता है कि जिनमें ईहा, अपोह, मार्गणा, _'लेश्या' जैनदर्शन का एक पारिभाषिक शब्द है। आत्मतत्व गवेषणा, चिंता और विमर्श करने की शक्ति-सामर्थ्य होती है वे जिसके सहयोग से कर्म-कुल से आवरित है, जैनागम में वस्तुतः वह जीव, संज्ञी अर्थात् समनस्क और जिनमें इनका अभाव होता है, वे / लेश्या कहलाती है। साधारणतया लेश्या का अर्थ है मनोवृत्ति, वस्तुतः असंज्ञी अर्थात् अमनस्क की कोटि में परिगणित हैं। विचार या तरंग किन्तु जैनाचार्यों ने कर्माश्लेष के कारणभूत जैनागमानुसार एक इन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रियों तक के जीव शुभाशुभ परिणामों को ही लेश्या कहा है। उत्तराध्ययन की वृहत् अमनस्क तथा पंचेन्द्रिय जीव कोई-कोई समनस्क और कोई-कोई वृत्ति में लेश्या का अर्थ आणविक आभा, कान्ति, प्रभा और छाया
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| अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
के रूप में किया गया है।१८ मूलाराधना में लेश्या के विषय में कृष्ण, नील और कापोत ये तीन रंग मनुष्य के विचारों पर बुरा बताया गया है कि लेश्या छाया पुद्गलों से प्रभावित होने वाले जीव प्रभाव डालने के कारण अशुद्ध हैं तथा इन रंगों से प्रभावित होने परिणाम हैं।१९ धवला में स्पष्ट वर्णन है कि आत्मा और कर्म का वाली लेश्याएँ भी अशुभ-अप्रशस्त कोटि की मानी जाने के कारण सम्बन्ध कराने वाली प्रवृत्ति लेश्या है।२० सर्वार्थ सिद्धि में कषायों । इन्हें अधर्म लेश्याएँ कहा गया है२९ अतः ये सर्वथा त्याज्य हैं। के उदय से अनुरञ्जित मन, वचन व काय की प्रवृत्ति को लेश्या अरुण रंग मनुष्य में ऋजुता, नम्रता और धर्म प्रेम उत्पन्न करता है, कहा है।२१ इस प्रकार जैनागम में लेश्या की अनेक परिभाषाएँ पीला रंग मनुष्य में शान्ति, क्रोध-मान-माया-लोभ की अल्पता तथा स्थिर हुई हैं।
इन्द्रिय-विजय का भाव उत्पन्न करता है तथा श्वेत रंग मनुष्य में
अथाह शान्ति तथा जितेन्द्रियता का भाव उत्पन्न करता है। इस जीव के मन में जिस प्रकार के विचार उत्पन्न होते हैं उसी
प्रकार तेजस्, पद्म और शुक्ल ये तीन वर्ण शुभ हैं क्योंकि ये प्रकार के वर्ण तथा तदनुरूप पुद्गल परमाणु उसकी आत्मा की
मनुष्य के विचारों पर अच्छा प्रभाव डालते हैं। अतः ये सदा उपादेय ओर आकृष्ट होते हैं। शुभ-अशुभ विचारों के आथार पर ही जैन
हैं।३० इनसे प्रभावित होने वाली लेश्याएँ भी प्रशस्त कोटि की मानी दर्शन में लेश्याएँ छहः भागों में विभक्त हैं
गयी हैं जिन्हें धर्म लेश्या कहा गया है। निश्चय ही लेश्याओं के १. कृष्णलेश्या २. नील लेश्या
ज्ञान-विज्ञान को जान-समझकर प्रत्येक संसारी जीव अपने मन के ३. कापोत लेश्या ४. तेजो लेश्या
विचारों को पवित्र शुद्ध करता हुआ अर्थात् अशुभ से शुभ और PORG
शुभ से प्रशस्त शुभ की ओर उन्मुख होता हुआ अपना आध्यात्मिक ५. पद्म लेश्या ६. शुक्ल लेश्या२२
विकास कर सकता है। कृष्णलेश्या वाले जीव की मनोवृत्ति निकृष्टतम होती है। उसके
आत्म तत्त्व को कलुषित करने वाली मनोवृत्तियाँ 'कषाय' से 2 0 विचार अत्यन्त कठोर, नृशंस, क्रूर एवं रुद्र होते हैं। विवेक विचार
संज्ञायित हैं। लेश्या की भाँति कषाय भी आत्मा के यथार्थ स्वरूप से रहित भोग-विलास में ही वह अपना जीवन यापन करता है।२३
को प्रच्छन्न-आच्छन्न करने में एक प्रभावी भूमिका का निर्वाह करते । नील लेश्या की कोटि में परिगणित जीव स्वार्थी होते हैं। उनमें
हैं। मन के विज्ञान का अध्ययन-अनुशीलन करते समय काषायिक ईर्ष्या, कदाग्रह, अविद्या, निर्लज्जता, द्वेष, प्रमाद, रस लोलुपता,
वृत्तियों को समझ लेना बी परम आवश्यक है। जैनदर्शन में इन प्रकृति की क्षुद्रता और बिना विचारे कार्य करने की प्रवृत्ति होती
वृत्तियों को मूलतः चार भागों में विभाजित किया गया हैहै।२४ किन्तु इस लेश्या वाले जीव की दशा कृष्णलेश्या वाले जीव की अपेक्षा श्रेष्ठ है क्योंकि इसमें जीव के विचार अपेक्षाकृत कुछ १. क्रोध
२. मान प्रशस्त होते हैं। कापोत लेश्यायी जीव की वाणी व आचरण में
३. माया
४. लोभ। वक्रता होती है। वह अपने दुर्गुणों को प्रच्छन्न कर सद्गुणों को प्रकट
मनोविज्ञान कहता है कि क्रोध के वशीभूत जीव अपने विवेक, करता है किन्तु नील लेश्यायी से उसके भाव कुछ अधिक विशुद्ध
विचार-क्षमता तथा तर्कणाशक्ति को विनष्ट कर देता है। क्रोध एक होते हैं।२५ तेजोलेश्या वाला जीव पवित्र, नम्र, दयालु, विनीत,
मानसिक किन्तु उत्तेजक संवेग है। क्रोधावेश में शरीर में विभिन्न इन्द्रियजयी तथा आत्मसाधना की आकांक्षा रखने वाला तथा अपने
प्रकार के परिवर्तनों को देखा-परखा जा सकता है। उदाहरणार्थ सुख की अपेक्षा दूसरों के प्रति उदारमना होता है।२६ पद्मलेश्या
रक्तचाप का बढ़ना, हृदयगति में अस्थिरता, मस्तिष्क के ज्ञान वाले जीव की मनोवृत्ति धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान में विचरण करती है। इस कोटि का जीव संयमी, कषायों से विरक्त, मितभाषी,
तन्तुओं का शून्य होना आदि। क्रोध की अनेक अवस्थाएँ होती हैं।
जो उत्तेजन एवं आवेश के कारण उत्पन्न होकर भयंकर स्थिति जितेन्द्रिय तथा सौम्य होता है।२७ शुक्ल लेश्या वाला जीव समदर्शी,
धारण करती हैं। जैनागम में क्रोध के दश रूप निर्दिष्ट किए गए हैं निर्विकल्प ध्यानी, प्रशान्त अन्तःकरण वाला, समिति-गुप्ति से युक्त,
यथा-क्रोध, कोप, रोष, दोष, अक्षमा, संज्वलन, कलह, चाण्डिक्य, अशुभ प्रवृत्ति से दूर तथा वीतरागमय होता है।२८
भण्डन तथा विवाद।३१ दूसरी कलुषित वृत्ति (मान कषाय) में भी उपर्युक्त विवेचनोपरान्त यह सहज में ही जाना जा सकता है उत्तेजन-आवेश विद्यमान रहता है। इसमें कुल-बल-ऐश्वर्य-बुद्धिकि इन भावों-विचारों का रंगों के साथ और रंगों का प्राणी जीवन जाति, ज्ञानादि के अहंकार का समावेश रहता है। मान कषाय की के साथ कितना गहरा सम्बन्ध है ? रंग हमारे शरीर तथा मानसिक अवस्थाओं का वर्णन करते हुए जैन संहित्य में बारह प्रकार के मान विचारों को किस प्रकार प्रभावित करते हैं? जैन शास्त्रों में लेश्या को निरूपित किया गया है यथा-मान, मद, दर्प, स्तम्भ, गर्व, के सिद्धान्त द्वारा इसी प्रभाव की व्याख्या की गई है। रंगों में काला अत्युत्क्रोश, परपरिवाद, उत्कर्ष, अपकर्ष, उन्नत, उन्नत नाम तथा रंग मानवीय जीवन में असंयम, हिंसा और क्रूरता; नीलारंग, ईर्ष्या, दुर्नाम।३२ तीसरी मनोवृत्ति है माया अर्थात् कपट। जैनागम में माया PROO असहिष्णुता, रसलोलुपता तथा आसक्ति, और कापोत रंग, वक्रता, } की पन्द्रह अवस्थाएँ गिनायी गयी हैं। जिनमें संश्लिष्ट जीव अपने कुटिलता, दृष्टिकोण का विपर्यास उत्पन्न कराते हैं। इस प्रकार } आर्जवत्व गुण से सदा प्रच्छन्न रहता है। ये अवस्थाएँ निम्न हैं
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________________ 02 %000030 1 6034000049-60000000000 ago 1 534 उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ / RSS4 माया, उपाधि, निकृति, वलय, गहन, नूम, कल्क, कुरुप, जिहमता, उपर्यंकित मन के विज्ञान का विवेचन-विश्लेषण से निष्कर्षतः किल्विषिक, आदरबता, गूहनता, वंचकता, प्रतिकुंचनता तथा / यह कहा जा सकता है कि जैनदर्शन में व्यवहृत सिद्धान्त सातियोग।३३ चौथी मनोवृति तृष्णा अर्थात् लोभ-लालसा है। इसकी F000 1 नीति- आचारादि पक्ष के माध्यम से कोई भी प्राणी अपने मन को सोलह अवस्थाएँ हैं-लोभ, इच्छा, मूर्छा, कांक्षा, गृद्धि, तेष्णा, प्रभावित करता हुआ आत्मा का विकास कर सकता है। यह दर्शन मिथ्या, अभिध्या, आशंसना, प्रार्थना, लालपनता, कामाशा, भोगाशा, जीव के मन की चेतन-अवचेतनअचेतन तीनों अवस्थाओं को जीविताशा, मरणाशा तथा नन्दिराग।३४ / / सुंस्कारित-परिष्कृत करने में सर्वदा सक्षम है। इसके सिद्धान्तों में उन वृत्तियों की तीव्रता-मन्दता तथा स्थायित्व को देखते हुए। ऐसी विद्युत शक्ति है जिसका सम्यक् ज्ञान तथा आचरण करने से व्यक्ति का अन्तर्द्वन्द्व शान्त होता है। नैतिक भावनाएँ तो प्रस्फुटित जैनागम में ये वृत्तियाँ चार-चार भागों में विभक्त हैं-अनन्तानुबंधी, होती ही हैं साथ ही कुत्सित भावनाओं असंख्यात वासनाओं का अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी तथा संज्वलन।३५ इन वृत्तियों में लीन / भस्म भी होना होता है। तदनन्तर प्राणी का मार्ग भी प्रशस्त अर्थात् व्यक्ति संसार चक्र के चक्रमण में भ्रमण करता है। नरक गति से / मंगलमय होता है। आज अपेक्षा है मन और लेश्याओं के माध्यम से देवगति तक की यात्रा तो करता है किन्तु इस यात्रा से बन्धन से अन्तरंग में प्रतिष्ठित अनन्त शक्तियों के जागरण की जिससे स्व-पर मुक्त नहीं हो पाता। क्योंकि ये मनोवृत्तियाँ आत्मा में व्याप्त अनन्त का कल्याण हो सके। वास्तव में जैनदर्शन का मनोविज्ञान जिसमें चतुष्टय को, लेश्याओं की सहायता से, अष्टकर्मों के मजबूत वेस्टन मन और लेश्या की भूमिकाएँ विशेषेन अनिर्वचनीय हैं, समस्त से आवरित करने में परम सहायक हैं। वास्तव में ये काषायिक प्राणवंत जीवों के लिए परम उपयोगी एवं कल्याणप्रद है। वृत्तियाँ प्रेम-प्रीति, विनय, मित्रता तथा अन्य समस्त सद्गुणों, पता : मंगल कलश मानवीय गुणों को नष्ट करने में सदा प्रवृत्त रहती हैं।३६ अतः इनसे 394, सर्वोदय नगर छूटना ही श्रेयस्कर है। आगरा रोड, अलीगढ़-२०२00१ सन्दर्भ स्थल 1. जे आया से विन्नाया" "पडिसंखाए। -आचारांग सूत्र, 1/5/5/1 2. (क) नन्दी सूत्र, सूत्र 30, (ख) स्थानाङ्ग सूत्र, स्था. 5 3. प्रज्ञापना सूत्र, इन्द्रिय पद १५वौँ, 4. प्रज्ञापना सूत्र, इन्द्रिय पद १५वाँ 5. तत्त्वार्थ सूत्र, 1/19 6. प्रज्ञापना सूत्र, इन्द्रिय पद, 1/19 7. प्रज्ञापना सूत्र, भाषापद, 1/19 8. सद्दे-रूवे य गन्धे य, रसे फासे तहेव य। पंचविहे कामगूणे, निच्चसो परिवज्जए॥ -उत्तराध्ययन सूत्र, 16/10 9. सव्वे सुहसाया. दुक्ख पडिकूला। -आचारांग सूत्र, 1/2/3 10. इन्द्रिय मनोनुकूलायाम्प्रवृत्तो, लाभस्यार्थस्याभिल्गाषातिरेके। -राजेन्द्र अभिधान, खण्ड 2, पृष्ठ 575 11. रागस्सहेउ समणुन्नमाहु दोसस्स हेउं अमणुन्नमाह। -उत्तराध्ययन सूत्र, 32/23 12. सर्वार्थसिद्धि, 1/14/109/3 13. मनः द्विविधः द्रव्यमनः भावमनः च। -सर्वार्थसिद्धि, 2/11/170/3 14. नन्दी सूत्र, सूत्र 40 15. तओ से जायंति-वइस्से। -उत्तराध्ययन सूत्र, 32/105/12/103 16. योगशास्त्र, आचार्य हेमचन्द्र 17. उत्तराध्ययनसूत्र, अध्याय 23, गाथा 36 18 लेशयति-श्लेषयतीवात्मनि जननयना नीति लेश्या-अतीव चक्षुराक्षेपि का स्निग्ध दीप्त रूपछाया। -बृहवृत्ति, पत्र 650 19 मूलाराधना, 6/1906 20. धवला, दिग्बराचार्य, वीरसेन, 7, 2, 1 सूत्र 3, पृष्ठ 7 21. (क) सर्वार्थसिद्धि, पूज्यपाद आचार्य, 2/6 (ख) तत्त्वार्थराजवार्तिक, आचार्य अकलंक, 2/6/8, पृष्ठ 109 22. सा षड्विधा-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोत लेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या शुक्ललेश्या चेति। -सर्वार्थसिद्धि, अ. 2, सूत्र 6, पृष्ठ 159 23. उत्तराध्ययन सूत्र, अध्याय 34, गाथांक 21, 22 24. उत्तराध्ययन सूत्र, अध्याय 34, गाथाङ्क 23, 24.. 25. वही, गाथांक, 25, 26 26. वही, गाथांक, 27, 28 27. वही, गाथांक, 29, 30 28. वही, गाथांक, 31, 32 29. वही, अध्याय 34, गाथांक, 56 30. वही, अध्याय 34, गाथांक, 57 31. भगवती सूत्र, शतक 12, उ. 5, पा. 2 32. भगवती सूत्र, शतक 12, उ.५. पाठ 3 33. वही, पाठ 4 34. वही पाठ 5, 35. (क) धवला, 6/1, 9-2, 23/41/3 (ख) द्रव्यसंग्रह, टीका, 30/69/7 (ग) वारस अणुवेक्खा, गाथांक 49 36. दशवैकालिक सूत्र, अध्याय 8, गाथाङ्क, 38-39 SoSORT Sampooganuar force %30000-00-00-00-56 महिला oooo o s