Book Title: Jain Darshan ka Adikal
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 4
________________ २४० श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन अन्य सारांश यह है कि किसी भी भौतिक वर्णन का विषय मुक्त आत्मा नहीं, तर्क से वह परे है और सामान्य-जन की मति से भी वह परे है, उपनिषदों में ब्रह्म को जिस प्रकार नेति-नेति कहकर बताया वैसा ही यह स्वरूप है (विशेष विवरण के लिए आगम युग का जैनदर्शन (९५) देखना चाहिए।) हाँ, एक बात विशेष ध्यान देने योग्य है वह यह कि आत्मा को ह्रस्व या दीर्घ नहीं बताया गया, किन्तु आगे चलकर शरीरपरिणामी आत्मा का सिद्धान्त स्थिर हुआ तब वह वैसा माना गया । आत्मा के लिए आत्म शब्द के उपरान्त प्राण भूत जीव चित्त चेतन और चित्तमन्त 'अचित्त' और 'अचेयण' ऐसे प्रयोगों के आधार से और सत्त्व, जन्तु इन शब्दों का प्रयोग देखा जाता है। -आचा० १, ४६, ५०, १७८, १६४, ८८, १५ आत्मा के स्वरूप के विषय में आचारांग का यह वाक्य भी ध्यान देने योग्य है जे आया से विन्नाया जे विन्नाया से आया । जेण विजाणई से आया, तं पडुच्च पडिसंखाए एस आयावाई समियाए परियाए वियाहिए -आचा० १६५ इसमें आत्मा की विज्ञाता रूप से पहचान कराई गयी है । इतना ही नहीं किन्तु ज्ञान और आत्मा एक ही हैयह भी कहा गया है। चक्षु आदि पाँच इन्द्रियाँ और उनके विषय रूपादि का निर्देश आचारांग में कई बार आता है तथा तज्जन्यज्ञान-परिज्ञान का भी उल्लेख है-(आचारांग-१६, ४१, ६३, ७१, १०६)। इतना ही नहीं, चक्षु आदि इन्द्रियों की विकृति के कारण जो अन्धत्वादि होते हैं उनका भी निर्देश देखा जाता है-(आचारांग ७८) किन्तु ये सभी निर्देश उनकी व्यवस्था के प्रसंग में न होकर संसार की दोषमयता दिखाने के प्रसंग में हैं। आचारांग में ज्ञानचर्चा स्वतन्त्र रूप से नहीं किन्तु प्रासंगिक प्रयोग आते हैं वे ये हैंजाणइ पासई (आचा० ७५, १६६) नाणभट्टा, दंसणलूसिणो (आचा० १६०) अभिन्नायदंसणे । -आचा०६, १,११ (गाथा) अणेलिसन्नाणि -आचा० ६.१, १६ नाणी""जोगं च सव्वसो णच्चा -आचा०६, १, १६ कुसलस्स दसणं -आचा० १६६ वीरासम्मत्तदंसिणो -आचा० १५५ सव्वसमन्नागयपन्नाणेणं -आचा० १५५ आघई नाणी -आचा० १३१ एगेवयंति अदुवावि नाणी नाणी वयंति अदुवावि एगे -आचा० १३२ से दिट्ठच णे सुयं च णे मयं च णे विण्णायं च णे -आचा० १३३ दिट्ठसुयं मयं विण्णायं -आचा० १२८ वीरे आगमेण सया परक्कमे -आचा० १६८, १९३ पासगस्सदसणं -आचा० १२१, १२५ किमथि उवाहि पासगस्स -आचा० १२५ जे कोहदंसी से माणदंसी जे मारदंसी से नरयदंसी -आचा० १२५ जे एग जाणई से सव्वं जाणई -आचा० १२२ दुक्खं लोग्गस्स जाणित्ता --आचा० १२३ उद्देसो पासगस्स नत्थि -आचा० ८१ से भिक्खू कालन्ने बालन्ने ससमय-परसमयन्ने -आचा० ८८ आययचक्खू लोग विप्पस्सी लोगस्स अहोभागं जाणई उड्ड भागं जाणई --आचा०६३ जाणेज्जा सहसम्मुइयाए परवागरणेणं अन्तेसि वा अन्तिए सोच्चा -आचा०४,१६७, २०३ सोच्चा खलु भगवओ अणगाराणं वा अन्तिए इहमेसि नायं भवई एस खलु गन्थे -आचा० १६, इत्यादि इन प्रयोगों के आधार से एक बात तो स्पष्ट होती है कि आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध में जिसप्रकार की पांच ज्ञान की प्रक्रिया नन्दीसूत्र में व्यवस्थित रूप से और परिभाषाबद्ध रूप में दिखाई देती है वह इन प्रयोगों में देखी O...-. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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