Book Title: Jain Darshan ka Adikal
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 6
________________ 242 श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ विपरीत-पासिमं दविए लोकालोकपवंचाओमुच्चई (आचारांग 120) अर्थात् देखो कि यह योग्य पुरुष लोक और अलोक के प्रपंच से मुक्त हो जाता है। ऐसा आचारांग में निर्देश है। इससे स्पष्ट है कि आगे चलकर जो लोक और अलोक की परिभाषा स्थिर हुई वह आचारांग में दिखती नहीं। टीकाकार को इसकी व्याख्या करने में कठिनाई भी हुई है(आचा० टीका, पृ० 170) मुक्तिमार्ग की चर्चा अवश्य है किन्तु तत्त्वार्थ सूत्र में जिस प्रकार दर्शन-ज्ञान-चारित्र को मुक्ति का मार्ग कहा गया और जो इस परिभाषा को आगे के सभी जैनदार्शनिकों ने मान्य रखा उसका अव्यवस्थित पूर्व रूप आचारांग कहीं एकत्व इन तीनों को मुक्तिमार्ग नहीं कहा गया / एसमग्गो अरिएहि पवेइए उदिए नो पमायए(आचा० 146) में अप्रमाद को मार्ग बताया गया है तो अन्यत्र अरई आउट्टे से मेहावी खणंसि मुक्के—(आचा० 72) कहकर अरति के निवारण को= विमुत्ता हु ते जणा पारगामिणो लोभमलोभेण दुगुच्छमाणे लढे कामे नाभिगहई (आचा० 74) में अलोभ को दण्डसमारम्भ से विरति अर्थात् अहिंसा को "एस मग्गे अरिएहि पवेइए (आचा० 76) कहा है। "एसमग्गे आरिएहि पवेइए (आचा० 61) में अपरिग्रह को। इसी अपरिग्रह का महत्त्व दिखाते हुए यह भी कहा गया है कि ब्रह्मचर्य भी अपरिग्रही में ही हो सकता है / और ब्रह्मचर्य में ही बन्धन से मुक्ति दिलाने का सामर्थ्य है। -(आचा० 150) अविज्जाए पलिमोक्खं-(आचा० 145) में अविद्या से मोक्ष मानने वालों का निराकरण किया गया है, अतएव विद्या भी एक मोक्ष का उपाय सिद्ध होता है / अच्छे कुल में जन्म लेकर यदि 'रूप' में आसक्त हो जाते हैं तो मोक्ष नहीं मिलता यह भी निर्दिष्ट है (आचा० 172) तत्त्वार्थसूत्र में मोक्ष के तीन उपायों की चर्चा है। उसमें सर्वप्रथम "दर्शन" को उपाय रूप से बताया है और दर्शन शब्द का अर्थ श्रद्धा किया गया है। आचारांग में श्रद्धा (आचा०१६) का निर्देश मिलता है। किन्तु उस श्रद्धा का आधार जिनों की आज्ञा है। उन्होंने जो कुछ कहा है वही सत्य और निःशङ्क है। ऐसी श्रद्धा पर भार दिया है। सड्डीआणाए मेहावी -आचा० 124 लोगं च आणाए अभिसमेच्चा -आचा०२१, 124 तमेवसच्चं निःसंकं जं जिणेहि पवेइयं - आचा० 162 संसार की वृद्धि करने वाले दोषों की गणना या सूची आचारांग में दी गयी है वह भी ध्यान देने योग्य है। इन दोषों से मुक्ति पा लेना ही मोक्ष या निर्वाण या सिद्धि है। -आचा० 121, 125, 145 कोह, माण, माया, लोभ, पेज्ज, दोस, मोह, अन्नाण, पमाय इत्यादि दोषों की गणना में कोह से लेकर लोभ तक की तथा मोह तक की सूचियाँ मिलती हैं / यही आगे चलकर कर्मशास्त्र में व्यवस्थित रूप ले लेती हैं। जो शब्द जैनों के लिए आगे चलकर पारिभाषिक बन गए हैं, वैसे कुछ शब्दों का संकलन यहाँ करना जरूरी है / यह ध्यान में रखनी चाहिए कि इन शब्दों की व्याख्या आचारांग में नहीं है / किन्तु उनका प्रयोग हुआ है / ये ही शब्द थे जिनको लेकर जैन-दर्शन की प्रमाण-प्रमेय व्यवस्था तथा संसार और मोक्ष की चर्चा की गई है। जिनके विषय में इतः पूर्व चर्चा हो चुकी है उनको इस सूची में स्थान नहीं दिया है / अज्जव, अरहन्त, आसव, उपसम, ओववाइय, कसाय, काल, खय, गइ, गम्भ, गृत्ति, चवण, जिण, जोग / कायं च जोगं च इरियं च —(आचा० 226) यह प्रयोग ऐसा है जो यह बताता है कि अभी जोग की परिभाषा स्थिर नहीं हुई थी। जोणी, माण, दंड, तक्क, तच्च, तहागय, दविय, निज्जरा, पज्जव, परिसह, पुण्ण, बंध, बोहि, मरण, मोह, लेस्सा, विपरिणाम, विपरियास, सम्मत / इनके प्रयोग स्थान के लिए डॉ० शूबिंग सम्पादित आचारांग की शब्द सूची देखें। इत्यादि कुछ शब्द ऐसे हैं जिनको लेकर आगे चल कर काफी चर्चा हुई है और परिभाषा की गई है। इस प्रकार आचारांग में दर्शनशास्त्रीय एवं भाषा वैज्ञानिक अध्ययन के मूलभूत अनेक तत्त्व विद्यमान हैं, जिनके आधार पर जैन-दर्शन के आदिकाल की रूपरेखा स्पष्ट समझी जा सकती है / आवश्यकता है, गम्भीरतापूर्वक अध्यवसाय के साथ अनुशीलन करने की। Jain Education International For Private &Personal use Only . www.jainelibrary.org

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