Book Title: Jain Darshan ka Adikal
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 2
________________ • २३८ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ जब तक कर्म है, आरम्भ है, हिंसा है तब तक संसार में परिभ्रमण है, दुःख है- आचारांग -१० यह तब रुक सकता है जब कर्म समारम्भ का परित्याग किया जाय, संसार के दुःख का प्रतिघात करने के लिए तथा जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति के लिए भगवान ने कर्म समारम्भ के परित्याग का उपदेश दिया है मुनि वही है जिसने कर्म समारम्भ का त्याग किया है। -आचा० ६, १३ अपने को अणगार संन्यासी कहनेवालों को भी जीव हिंसा कैसे होती है इसका भान नहीं होता क्योंकि उनको जीव कहाँ है और कहाँ नहीं है इसका ही पता नहीं । अतएव आचारांग के शस्त्रपरिज्ञा नामक प्रथम अध्ययन में क्रमशः पृथ्वी, उदक (जल), अग्नि, वनस्पति, त्रसकाय और वायु ये स्वयं भगवान महावीर ने अपने साधना काल में ही जाना था कि ये छहों काय "चित्तमंत" सजीव हैं अतएव उनकी हिंसा से वे बचकर चले थे। -आचा०६।१-१२, १३ छः जीवनिकाय हैं और उनकी विविध प्रकार से हिंसा मनुष्य अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए किस प्रकार करता है यह विस्तार से दिखाया गया है और कहा है किसव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसि जीवाणं सव्वेसि सत्ताणं असायं अपरिणिन्वाणं महब्भयं दुक्खंति -आचा०५० अर्थात् हिंसा के कारण सभी जीवों को जो दुःख है यही असाता है अपरिनिर्वाण है और महाभय है। इस महाभयरूप दुःख से मुक्ति पाने का एक ही उपाय है -कर्म समारम्भ-हिंसा का परित्याग अतएव सभी अर्हन्तों का तीर्थंकरों का उपदेश है __ जे अईया जेय पडुपन्ना आगमिस्सा अरहंता भगवंतो ते सव्वे एवमाइक्खंति एवं भासंति एवं पण्णविति एवं परूवन्ति सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता न हंतव्वा न अज्जावेयव्वा न परिचित्तव्वा न परियावेयव्वा न उद्दवेयव्वा । एस धम्मे सुद्धे निइए समिच्च लोयं खेयण्णे पवेइए..... -आचा० १२६ । अर्थात् किसी भी जीव की किसी भी प्रकार से हिंसा न करनी चाहिए, किसी भी प्रकार से उन्हें कष्ट नहीं देना चाहिए । आचारांग में अहिंसा धर्म के लिए तो कहा गया है कि वह नित्य है (११२६) किन्तु पदार्थों के स्वरूप के विषय में खास कर भोग के साधन बनने वाले शरीर के लिए तो कहा है कि पुब्विपेयं पच्छापेयं भेउरधम्म विद्ध सण धम्ममधुवं अणि इयं असासयं चयावइचयं विप्परिणामधमं पासह एवं रूवसंधि -आचारांग १४७ सूत्रकृतांग १, १, २, १० में भी कहा है-विद्धसण धम्ममेव तं इयविज्जं कोऽगारमावसे यह वैसा ही निरूपण है जैसा कि बौद्ध साहित्य में भी देखा जा सकता है सो एवं पजानतिअयं खो मे कायो रूपी चातुमहाभूतिको मातापेत्तिक संभवो ओदन कुम्मांसुपचयो अनिच्चुच्छादन परिमदनभेदन विद्ध सन धम्मो। दीघ..."२०८५ । हिंसा क्यों नहीं करनी चाहिए उसके लिए ये दलील दी गई है (१) सव्वेपाणा पियाऊया सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवहा पियजीविणो जीविउं कामा सव्वेसि जीवियं पियं। -आचा०८० सभी जीवों को जीना पसन्द है, सभी जीव सुखास्वादी है, दुःख से द्वेष करते हैं, अपना वध उन्हें अप्रिय है, जीवन से प्रेम करते हैं, जीने की इच्छा करते हैं अतएव उनकी हिंसा नहीं करनी चाहिए। (२) तुमंसि नाम सच्चेव जं हंतव्वं ति मन्नसि तुमंसि नाम सच्चेव जं अज्जावेयव्वं ति मनसि ......."तम्हा न हंतव्वं न वि घायए, अणुसंवेयण मप्पाणेण जं हन्तव्वं नाभिपत्थए -आचा० १६४ । यह सारांश टीका के अनुसार है। जिसकी हिंसा करनी है वह तुम ही हो अतएव हिंसा न करनी चाहिए क्योंकि आत्मौपम्यकी [इसके लिए समया (समता) शब्द आचारांग में हैं (१०६, ११६) उसी के आधार पर सामाइय की कल्पना हुई है जिसका स्वरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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