Book Title: Jain Darshan aur yoga Darshan me Karmsiddhant
Author(s): Ratnalal Jain
Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf

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Page 2
________________ खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन प्राप्त होकर ज्ञान-दर्शन के घातक (ज्ञानावरण व दर्शनावरण तथा सुख-दुःख शुभ-अशुभ आयु, नाम, उच्च व नीच गोत्र और अन्तराय रूप) पुद्गलों को कर्म कहा जाता है । __पातंजल योग दर्शन में प.शिय-महर्षि पतंजलि लिखते हैं—“क्लेशमूलक कर्माशय--कर्म-संस्कारों का समुदय वर्तमान और भविष्य दोनों ही जन्मों में भोगा जाने वाला है।" कर्मों के संस्कारों की जड़अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष और अभिनिवेश ये पाँच क्लेश हैं । यह क्लेशमूलक कर्माशय जिस प्रकार इस जन्म में दुःख देता है, उसी प्रकार भविष्य में होने वाले जन्मों में भी दुःखदायक है । जब चित्त में क्लेशों के संस्कार जमे होते हैं, तब उनसे सकाम कर्म उत्पन्न होते हैं । बिना रजोगुण के कोई क्रिया नहीं हो सकती। इस रजोगुण का जब सत्व गुण के साथ मेल होता है, तब ज्ञान, धर्म, वैराग्य और ऐश्वर्य के कर्मों में प्रवृत्ति होती है। इस रजोगुण का जब तमोगुण से मेल होता है तब उसके उल्टे अज्ञान, अधर्म, अवैराग्य और अनैश्वर्य के कर्मों में प्रवृत्ति होती है । यही दोनों प्रकार के कर्म शुभ-अशुभ, पाप-पुण्य या शुक्ल-कृष्ण कहलाते हैं । जैन दर्शन को आठ कर्म प्रकृतियाँ-जिस रूप में कर्म-परमाणु आत्मा की विभिन्न शक्तियों के प्रकटन का अवरोध करते हैं. और आत्मा का शरीर से सम्बन्ध स्थापित करते हैं तथा जिन कर्मों से बद्ध जीव संसार भ्रमण करता है, वे आठ हैं . १. ज्ञानावरणीय कर्म-यह कर्म जीव की अनन्त ज्ञान-शक्ति के प्रादुर्भाव को रोकता है। २. दर्शनावरणीय कर्म-यह कर्म जीव की अनन्त दर्शन-शक्ति को प्रकट नहीं होने देता। ३. मोहनीय कर्म-यह कर्म आत्मा की वीतराग दशा/स्वरूपरमणता को रोकता है। ४. अन्तराय कर्म-यह कर्म अनन्तवीर्य को प्रकट नहीं होने देता। ५. वेदनीय कर्म-यह कर्म अव्याबाध सुख को रोकता है। ६. आयुष्य कर्म-यह कर्म शाश्वत स्थिरता को नहीं होने देता है। ७. नाम कर्म-यह कर्म अरूपी अवस्था नहीं होने देता। ८. गोत्र कर्म-यह कर्म अगुरु-लघुभाव को रोकता है। धाति और अधाति कर्म घाति कर्म- जो कर्म आत्मा के साथ बँध कर उसके नैसर्गिक गुणों का घात करते हैं। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय घाति कर्म हैं। ___ अघाति कर्म-जो आत्मा के प्रधान गुणों को हानि नहीं पहुंचाते । वेदनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र अघाति कर्म हैं। योग दर्शन के विपाक-जाति, आयु और भोग । जब तक क्लेश रूप जड़ विद्यमान रहती है, तब तक कर्माशय का विपाक अर्थात् फल जाति, आयु और भोग होता है। क्लेश जड़ है। उन जड़ों से कर्माशय का वृक्ष बढ़ता है। उस वृक्ष में जाति, आयु और भोग तीन प्रकार के फल लगते हैं । कर्माशय वृक्ष उसी समय तक फलता है, जब तक अविद्यादि क्लेशरूपी उसकी जड़ विद्यमान रहती है। जैन दर्शन में अन्ध का स्वरूप-जीव और कर्म के संश्लेष को बन्ध कहते हैं । जीव अपनी वृत्तियों खण्ड ४/७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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