Book Title: Jain Darshan aur yoga Darshan me Karmsiddhant
Author(s): Ratnalal Jain
Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 8
________________ खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन संवर--प्रास्त्रव का निरोध, योग-चित्त वृत्ति का निरोध संवर-वाचक उमास्वाति लिखते हैं--"आस्रव-द्वार का निरोध करना संवर है।" आचार्य पूज्यपाद लिखते हैं- “जो शुभ-अशुभ कर्मों के आगमन के लिये द्वार रूप है, वह आस्रव है, जिसका लक्षण आस्रव का निरोध करना है, वह संवर है।" । आचार्य हेमचन्द्र सूरि का कथन है-“जो सर्व आस्रवों के निरोध का हेतु है, उसे संवर कहते हैं।" "जिस तरह नौका में छिद्रों से जल प्रवेश पाता है और छिद्रों को रूध देने पर थोड़ा भी जल प्रविष्ट नहीं होता, वैसे ही योगादि आस्रवों को सर्वतः अवरुद्ध कर देने पर संवृत जीव के प्रदेशों में कर्म द्रव्यों का प्रवेश नहीं होता।" योग चित्तवृत्तियों का निरोध- महर्षि पतंजलि लिखते हैं---योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः, “चित्त की वत्तियों का रोकना योग है ।" चित्त की वृत्तियाँ जो बाहर को जाती हैं, उन बहिर्मुख वृत्तियों को सांसारिक विषयों से हटाकर उससे उल्टा अर्थात् अन्तर्मुख करके अपने कारण चित्त में लीन कर देना योग है। चित्त मानो अगाध परिपूर्ण सागर का जल है। जिस प्रकार वह पृथ्वी के सम्बन्ध से खाड़ी, झील आदि के आन्तरिक तदाकार परिणाम को प्राप्त होता है, उसी प्रकार चित्त आन्तर-राग-द्वेष कामक्रोध, लोभ-मोह, भय आदि रूप आकार से परिणत होता रहता है तथा जिस प्रकार वायु आदि के वेग से जलरूपी तरंग उठती हैं, इसी प्रकार चित्त इन्द्रियों द्वारा बाह्य विषयों से आकर्षित होकर उन जैसे आकारों में परिणत होता रहता है । ये सब चित्त की वृत्तियाँ कहलाती हैं, जो अनन्त हैं और प्रतिक्षण उदय होती रहती हैं। __ "वृत्तियाँ पाँच प्रकार की हैं- क्लिष्ट अर्थात् राग-द्वषादि क्लेशों की हेतु और अक्लिष्ट अर्थात् राग-द्वषादि क्लेशों का नाश करने वाली ।" “पाँच प्रकार की वृत्तियाँ इस प्रकार हैं-प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति ।" पाँच महाव्रत एवं पाँच सार्वभौम यम जैनदर्शन में आत्मसाधना-आस्रवनिरोध के लिये पाँच महाव्रतों की पालना के लिये विधान है, इसी प्रकार योग-दर्शन में योग की साधना के लिये पाँच सार्वभौम यमों की प्रतिष्ठा की गई है। हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह से (मन, वचन और काय द्वारा) निवृत्त होना व्रत है। “अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये पाँच यम हैं।" मन से, वचन से और शरीर से (कर्म से) सभी प्राणियों की किसी प्रकार से (करना, कराना, अनुमोदन करना) हिंसा-कष्ट न पहुँचाना अहिंसा है । “भगवान महावीर ने कहा है-हे मानव ! तू दूसरे जीवों की आत्मा को भी अपनी ही आत्मा के समान समझकर हिंसा कार्य में प्रवृत्त न हो....."। हे पुरुष ! जिसे तू मारने की इच्छा करता है, विचार कर, वह तेरे जैसा ही सुख-दुःख का अनुभव करने वाला प्राणी है। जो हिंसा करता है उसका फल बाद में वैसा ही भोगना पड़ता है। अतः मनुष्य किसी भी प्रकार प्राणी की हिंसा करने की कामना न करे।" इसी प्रकार सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह महावतों, यमों की तीन करण व तीन योगमन, वचन और काय से पालना करनी चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10