Book Title: Jain Darshan aur yoga Darshan me Karmsiddhant Author(s): Ratnalal Jain Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf View full book textPage 7
________________ जैन दर्शन और योग दर्शन में कर्म सिद्धान्त : रत्नलाल जैन उत्तर प्रकृतियाँ पाप प्रकृतियां पुण्य प्रकृतियाँ عمر मूल प्रकृतियाँ १. ज्ञानावरणीय २. दर्शनावरणीय ३. वेदनीय ४. मोहनीय ५. आयुष्य م له १ (असाता) १ (साता) م ه १ (नरक) ३ (देव, मनुष्य, तिर्यन्च) ६. नाम ७. गोत्र ८. अन्तराय १ (नीच) ८ (उच्च) १ (उच्च) ة م عر ا ه ९७ १५ पुण्य-शुभ कर्म है, किन्तु अकाम्य है, हेय है :-- योगीन्दु कहते हैं-- "पुण्य से वैभव, वैभव से अहंकार, अहंकार से बुद्धिनाश और बुद्धिनाश से पाप होता है, अतः हमें वह नहीं चाहिये ।" आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं-"अशुभ कर्म कुशील है-बुरा है और शुभ कर्म सुशील है - अच्छा है, ऐसा जगत् मानता है । परन्तु जो प्राणी को संसार में प्रवेश कराता है, वह शुभ कर्म सुशील, अच्छा कैसे हो सकता है ? जैसे लोहे की बेड़ी पुरुष को बाँधती है और सवर्ण की भी बाँधती है, उसी तरह शुभ और अशुभ कृत कर्म जीव को बाँधते हैं । अतः जीव ! तू दोनों कूशीलों से प्रीति अथवा संसर्ग मत कर । कुशील के साथ संसर्ग और राग से जीव की स्वाधीनता का विनाश होता है । जो जीव परमार्थ से दूर हैं, वे अज्ञान से पुण्य को अच्छा मानकर उसकी कामना करते हैं। पर पुण्य संसार गमन का हेतु है, अतः तू पुण्य कर्म में प्रीति मत कर।" पुण्य काम्य नहीं है । पुण्य की कामना पर-समय है । योगीन्दु कहते हैं-"वे पुण्य किस काम के जो राज्य देकर जीव को दु.ख परम्परा की ओर धकेल दें। आत्म-दर्शन की खोज में लगा हुआ व्यक्ति मर जाए-यह अच्छा है, किन्तु आत्मदर्शन की खोज से विमुख होकर पुण्य चाहे वह अच्छा नहीं है।" ____ सुखप्रद कर्माशय भी दुःख है-महर्षि पतंजलि लिखते हैं-"परिणाम-दुःख, पाप-दुःख और संस्कार-दुःख-ये तीन प्रकार के दुःख सब में विद्यमान रहने के कारण और तीनों गुणों की वृत्तियों में परस्पर विरोध होने के कारण विवेकी पुरुष के लिये सब के सब कर्मफल दुःख रूप ही है ।" परिणामदुःख जो कर्म विपाक भोग काल में स्थूल दृष्टि से सुखद प्रतीत होता है, उसका परिणाम दुःख ही है। जैसे स्त्री प्रसंग के समय मनुष्य को सुख भासता है, परन्तु उसका परिणाम-बल, वीर्य, तेज, स्मृति आदि का ह्रास प्रत्यक्ष देखने में आता है । इसी प्रकार दूसरे भोगों में भी समझ लेना चाहिये । गीता में भी कहा है-"जो सुख विषय और इन्द्रियों के संयोग से होता है, वह यद्यपि भोग काल में अमृत के सदृश भासता है, परन्तु परिणाम में विष के तुल्य है, इसलिये वह सुख राजस कहा गया है।" विवेकी पुरुष परिणाम-दुःख, ताप-दुःख, संस्कार-दुःख तथा गुणवृत्तियों के निरोध से होने वाले दुःख को विवेक के द्वारा समझता है । उसकी दृष्टि में सभी कर्म विपाक दुःख रूप है । साधारण जनसमुदाय जिन भोगों को सुखरूप समझता है विवेकी के लिये वे भी दुःख ही हैं। गीता में लिखा है-"इन्द्रियों और विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले जितने भी भोग हैं, वे सब के सब दुःख के ही कारण हैं।" ज्ञानी कहते हैं--काम-भोग शल्यरूप हैं, विषरूप हैं, जहर के सदृश हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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