Book Title: Jain Darshan aur Vigyan Author(s): Kanhaiyalal Lodha Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 3
________________ कन्हैयालाल लोढा : जैनदर्शन और विज्ञान ; ३३१ हैं—'जैसे जीवित (चलते-फिरते) प्राणी परिश्रम के बाद रात में सोकर थकावट दूर करते हैं वैसे ही पेड़-पौधे भी रात को सोते हैं. सूडान और वेस्ट इंडीज में एक ऐसा वृक्ष मिलता है जिसमें से दिन में विविध प्रकार की राग-रागिनियां निकलती हैं और रात में ऐसा रोना-धोना प्रारम्भ होता है मानों परिवार के सब सदस्य किसी की मृत्यु पर बैठे रो रहे हों या सिसक रहे हों. डा० जगदीशचन्द्र वसु ने तो वनस्पति की क्रोध, घृणा, प्रेम, आलिंगन आदि अनेक अन्य प्रवृत्तियों पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला है. जैन ग्रंथों में वनस्पति की उत्कृष्ट आयु दस हजार वर्ष कही गई है. प्रसिद्ध वैज्ञानिक एडमंड शुमांशा के कथनानुसार आज भी अमेरीका के केलीफोनिया के नेशनल वन में ४६०० वर्ष की आयु के वृक्ष विद्यमान हैं. प्रात्म-अस्तित्व और विज्ञान आज के विज्ञान-जगत् में आत्म-अस्तित्व पर भी विश्वास प्रकट किया जाने लगा है. विश्व के महान वैज्ञानिक अपनी शोध-खोज के आधार पर आत्म-अस्तित्व स्वीकार करने लगे हैं. यथा' :"वह युग निश्चय ही आयेगा, जब विज्ञान अज्ञात-अज्ञेय के सभी बन्द दरवाजे खोलने में समर्थ होगा. जितना हम पहले सोचते थे, ब्रह्माण्ड उससे भी अधिक आध्यात्मिक तत्त्वों पर टिका है. सच तो यह है कि हम ऐसे आध्यात्मिक जगत् में रहते हैं, जो भौतिक संसार से अधिक महान् और सशक्त है."-सर ओलिवर लॉज. कोई अजानी शक्ति निरन्तर क्रियाशील है, परन्तु हमें उसकी क्रिया का कुछ पता नहीं.......मैं मानता हूँ कि चेतना ही प्रमुख आधारभूत वस्तु है. पुराना नास्तिकवाद अब पूरी तरह मिट चुका है और धर्म, चेतना तथा मस्तिष्क के क्षेत्र का विषय बन गया है. इस नयी धार्मिक आस्था का टूटना संभव नहीं है.".-सर ए० एस० एडिग्टन. "कुछ ही समय पहले तक यह बात वैज्ञानिक क्षेत्रों में एक हद तक फैशन बन गई थी कि अपने को नास्तिक (एग्नौस्टिक) कहा जाए, लेकिन अब अगर कोई आदमी अपनी नास्तिकता की नासमझी पर गर्व करता है, तो यह लज्जा और तिरस्कार की बात है. नास्तिकता का फैशन अब मिट चुका है. और, यह विज्ञान के श्रम का ही फल है.'—साइन्स एंड रिलिजन. "सच्चाई तो यह है कि जगत् का मौलिक रूप जड़ (Matter), बल (Force) अथवा भौतिक पदार्थ न होकर मन और चेतना ही है.-जे० बी० एस० हेल्डन. अजीव तत्त्व अब दूसरे तत्त्व 'अजीव' को लीजिए. जैनागमों में अजीव के पाँच भेद कहे हैं—(१) धर्म (२) अधर्म (३) आकाश (४) काल (५) पुद्गल. ये पाँच द्रव्य तथा जीव कुल छः द्रव्य रूप यह लोक कहा गया है. यहाँ न तो धर्म, शब्द कर्तव्य, गुण, स्वभाव व आत्म-शुद्धि के साधन का अभिव्यंजक है और न अधर्म शब्द दुष्कर्म या पाप का अभिव्यंजक. यहाँ ये दोनों ही जैन दर्शन के विशेष पारिभाषिक शब्द हैं और दो मौलिक द्रव्यों के सूचक हैं. जैनागमों में धर्म शब्द उस द्रव्य के लिए प्रयुक्त हुआ है जो जीव और पुद्गल की गतिक्रिया में सहायक होता है और अधर्म उस द्रव्य के लिए प्रयुक्त हुआ है जो जीव और पुद्गल की स्थिति में सहायक होता है. इसी प्रकार 'आकाश' और 'काल' को भी मौलिक द्रव्यों में स्थान दिया है. धर्म और अधर्म-विज्ञान की एक महत्त्वपूर्ण शोध 'ईथर' है. ईथर और जैनदर्शन में कथित धर्म द्रव्य के गुणों में १. ज्ञानोदयः अक्टूबर १९५६ २. धम्मो अहम्मो आगासं, कालो पुम्गल जतबो. एम लोगोत्ति पन्नत्तो, जिणेहि वरदंसिहि । -उत्तराध्ययन अ० २८ गा ७ ADM AAVALAN MAHAR arnitine, NamasuKAMB WADMINISTRI SAR Jain Clibrary.orgPage Navigation
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