Book Title: Jain Darshan aur Vigyan
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 10
________________ ३३८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय ----0-0--0--0--0--0--0--0-0 लोग मूर्ख मानते थे लेकिन इधर सुप्रसिद्ध विज्ञानवेत्ताओं ने काफी शोधकार्य के पश्चात् इस तथ्य में विश्वास करना आरम्भ कर दिया है. कुछ विद्वानों का विश्वास है कि प्राचीन काल में इस शक्ति का बहुत विकास हुआ था. इसी के समर्थन में एक अन्य वैज्ञानिक का मन्तव्य' है-“अनदेखी और अनजानी चीजों के बारे में सही-सही बता देने की ताकत को ही अंग्रेजी में 'सिक्स्थ सेंस' अर्थात् छठी सूझ कहते हैं. समय और दूरी की सीमा में ही नहीं बल्कि किसी दूसरे के मन और मस्तिष्क की अभेद्य सीमा के अन्दर भी आप इस सूझ के जरिये आसानी से प्रवेश पा सकते हैं. क्या यह सच है ? क्या सचमुच ही ऐसी ताकत किसी में हो सकती है ? बात कुछ असम्भव सी दीखती है. पर है यह सत्य. इससे इन्कार नहीं किया जा सकता". दूरस्थ मानव के मन को विना किसी भौतिक माध्यम (रेडियो, तार, टेलीफोन आदि) के हजारों मील दूरस्थ व्यक्ति के साथ केवल मन के माध्यम से विचारों का आदान-प्रदान प्रेषण-ग्रहण करने की प्रकिया को टेलीपैथी कहते हैं. आज टेलीपैथी के विकास में अमेरीका और रूस में होड़ लगी है. कुछ समय पूर्व अमेरीका के प्रयोगकर्ताओं ने हजारों मील दूर सागर के गर्भ में चलने वाली पनडुब्बियों के चालकों को टेलीपैथी प्रक्रिया से संदेश भेजने में सफलता प्राप्त कर विश्व को चकित कर दिया है. अभिप्राय यह है कि दूरस्थ व्यक्ति के मन के भावों को जानना आज सिद्धांततः स्वीकार कर लिया गया है. प्रसिद्ध वैज्ञानिक आईन्स्टीन का कथन है कि यदि प्रकाश की गति से अधिक (प्रकाश की गति एक सेंकिड में १८६००० मील है) गति की जा सके तो भूत और भविष्य की घटनाओं को भी देखा जा सकता है. अभिप्राय यह है कि विज्ञान अवधि, मनःपर्यव व केवलज्ञान के अस्तित्व में विश्वास करने लगा है. दर्शन जैनागमों में 'तत्त्वार्थश्रद्धानम् सम्यग्दर्शनम्' अर्थात् तत्त्वों की यथार्थ श्रद्धा को सम्यगर्शन कहा है. तत्त्वों को यथार्थ श्रद्धा स्याद्वाद के विना होना असंभव है. कारण कि स्याद्वाद ही एक ऐसी दार्शनिक प्रणाली है जो तत्त्व के यथार्थ स्वरूप का दिग्दर्शन करती है. प्रत्येक तत्त्व या पदार्थ अनंत गुणों का भंडार है. उन अनन्त गुणों में वे गुण भी सम्मिलित हैं जो परस्पर में विरोधी हैं फिर भी एक ही देश और काल में एक साथ पाये जाते हैं. इन विरोधी तथा भिन्न गुणों को विचार-जगत् में परस्पर न टकराने देकर उनका समीचीन सामञ्जस्य या समन्वय कर देना ही स्याद्वाद, सापेक्षवाद या अनेकांतवाद है. अलवर्ट आइन्स्टीन के सापेक्षवाद (Theory of Relativity) के आविष्कार (जैनागमों की दृष्टि से आविष्कार नहीं) के पूर्व जैनदर्शन के इस सापेक्षवाद सिद्धांत को अन्य दर्शनकार अनिश्चयवाद, संशयवाद आदि कहकर मखौल किया करते थे. परन्तु आधुनिक भौतिक विज्ञान ने द्वन्द्वसमागम (दो विरोधों का समागम) सिद्धांत देकर दार्शनिक जगत् में क्रान्ति कर दी है. भौतिक विज्ञान के सिद्धांतानुसार परमाणु मात्र आकर्षण गुणवाले धनाणु (Proton) और विकर्षण गुण वाले ऋणाणु (Electron) के संयोग का ही परिणाम है. अर्थात् धन और ऋण अथवा आकर्षण और विकर्षण इन दोनों विरोधों का समागम ही पदार्थरचना का कारण है. पहले कह आये हैं कि जैसे जैनदर्शन पदार्थ को नित्य (ध्रुव) और अनित्य (उत्पत्ति और विनाश युक्त) मानता है उसी प्रकार विज्ञान भी पदार्थ को नित्य (द्रव्य रूप से कभी नष्ट नहीं होने वाला) तथा अनित्य (रूपांतरित होने वाला) मानता है. इस प्रकार दो विरोधी गुणों को एक पदार्थ में एक ही देश और एक ही काल में युगपत् मानना दोनों ही क्षेत्रों में सापेक्षवाद की देन है. १. नवनीत जुलाई ५२ पृष्ठ ४० २. तत्त्वार्थसूत्र अ०१ सूत्र २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 8 9 10 11 12