Book Title: Jain Darshan Sammat Atma ka Swarup Vivechan Author(s): M P Patairiya Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf View full book textPage 4
________________ का कर्ता हारिक-सम्बन्ध जुड़ जाता है। इसी तरह आत्मा राग-आदि विकल्प-उपाधियों से रहित,निष्क्रिय का पुद्गल/द्रव्य के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, और परम चैतन्य भाव से रहित जीव ने राग आदि तथापि अनादिकाल से पुद्गल-क्षेत्र में अवगाहन को उत्पन्न करने वाले जिन कर्मों को उपार्जित कर करते रहने के कारण, उसके प्रति राग-द्वेष-मोह लिया है, उनका उदय होने पर, निर्मल आत्मज्ञान रूप अशुद्धोपयोग बन जाता है। इसी अशुद्ध-उप- को प्राप्त करता हुआ 'भावकर्म' कहे जाने वाले . योग के कारण भावात्मक रूप में पुद्गल/पदार्थ से राग आदि विकल्प-रूप चेतन कर्मों का कर्ता, अशुद्ध बंध जाता है। इस बन्धन को हम 'भाव-बन्ध' कह निश्चयदृष्टि की अपेक्षा से कहलाता है। शुद्ध सकते हैं।16 निश्चयदृष्टि की अपेक्षा से तो चेतन कर्मों का ही अशुद्ध-उपयोग से उत्पन्न राग-द्वेष-मोह भावों कर्ता होता है। से जब-जब भी शेय-पदार्थों को आत्मा देखता है, छद्म अवस्था में, शुभ-अशुभ काय-वाङ-मनोया जानता है, तब-तब उसकी चेतना में विकार योग के व्यापार से रहित, एकमात्र शुद्ध स्वभावपैदा होने लगता है। इसी विकार के परिणाम-रूप रूप में, जब जीव का परिणमन होता है, तब में राग-द्वेष-मोह उत्पन्न होते हैं, जो ‘भाव-बन्ध' भावना रूप से विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चयदृष्टि का आकार ग्रहण कर लेते हैं। भाव बन्ध का की अपेक्षा से अनन्त-ज्ञान-सुख अ द्ध भावों का प्रारम्भ हो जाने पर, तदनुसारी द्रव्य-कर्मों का बंध कर्ता होता है । जबकि मुक्त अवस्था में, शुद्धनिश्चय भी हो जाता है। दृष्टि की अपेक्षा से ज्ञान आदि आशय यह है, कि पर-उपाधियों से उत्पन्न, होता है। चेतना के विकार-रूप राग-द्वेष-मोह-परिणामों से जीव में शुद्ध-अशुद्ध भावों के परिणमन का ही आत्मा बंधता है। इन्हीं परिणामों के कारण, एक कर्तृत्व मानना चाहिए, न कि हाथ-पैर आदि व्याही क्षेत्र/स्थान/आकृति में 'जीव' और 'कर्म' का पार रूप परिणमन का। क्योंकि, नित्य, निरञ्जन, पारस्परिक बन्ध होता है । तब, पुद्गल कर्म-वर्ग- निष्क्रिय-स्वरूप भाव से रहित जीव में ही कर्म आदि णाओं की, यथायोग्य स्निग्ध-रूक्ष गुणों के अनुसार का कर्तृत्व बनता है । अर्थात्-आत्मा, व्यवहार से एल होनेवाली पारस्परिक बद्धता जो एक-पिण्ड आकृति पुद्गल कर्मों का, निश्चय से चेतन कर्मों का और न ग्रहण करती है, उसे 'द्रव्य-बन्ध' कहते हैं । शुद्धनय से शुद्धभावों का ही कर्ता होता है ।19 कथञ्चित् कर्तृत्व कञ्चित् अकर्त त्व आत्मा, व्यवहारदृष्टि की अपेक्षा से पर-पर्यायों परिणाम' और 'परिणामी' में परस्पर अभेद में निमज्जन करता हआ पूद्गल कर्मों का, अशुद्ध- होने से, परिणामी अपने ही परिणामों का कर्ता निश्चयदृष्टि की अपेक्षा से राग आदि चेतन-भावों/ होता है।20 कि, जीव का परिणमन जीवन-क्रिया कर्मों का, शुद्ध-द्रव्याथिक-निश्चयदृष्टि की अपेक्षा रूप में ही होता है. इसलिए जीव का परिणाम से शुद्ध-ज्ञान-दर्शन आदि आत्मभावों का कर्ता होता जीव ही होता है। जिस किसी द्रव्य में, जो भी है । यद्यपि, ये ज्ञान-दर्शन-आदि भाव से आत्मा से परिणाम रूप क्रियायें होती हैं, इन क्रियायों के साथ । अभिन्न हैं; तथापि पर्यायार्थिक दृष्टि की अपेक्षा से वह द्रव्य तन्मय हो जाता है। इसी तरह जीव को भिन्न-म्वरूप वाले होने के कारण आत्मा से भिन्न भी अपनी क्रियाओं में तन्मयता के कारण, वे भो। । इसलिए -आत्मा, अपने ज्ञान-दर्शन आदि क्रियाएँ/परिणाम भी जोवमय बन जाते हैं। जो का भी कथञ्चित कर्ता होता है। क्रियाएँ जीव के द्वारा स्वतन्त्रतापूर्वक की जाती हैं, १८८ तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन - साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International Pornvate Personal use only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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